Saturday, December 19, 2015

झुग्गियां

212 212 212 212
इक शमां जल रही इस कदर शाम से
तीरगी (1) आ रही है नज़र शाम से

झोंपड़ों में सभी आज खामोश हैं
भूख का शोर है हर तरफ शाम से

चिमनियां बस्तियों की हैं ठंडी पड़ीं
जम गया है कहीं ये धुआं शाम से

जो उड़े लौट कर आएंगे अब नहीं
चुप तभी है खड़ा ये शजर (2) शाम से

नींद ना आएगी आज भी रात भर
दोपहर कर रही साजिशें शाम से

आंख पथरा गई देखते-देखते
कोई' आया नहीं है इधर शाम से

बाद मुद्दत हुआ चांद से सामना
बेज़ुबां सा खड़ा है मगर शाम से

हो अंधेरा बहुत तो खिले धूप भी
बात ये कह रही है सहर (3) शाम से
 

1. तीरगी: अंधेरा 2. शजर: पेड़ 3. सहर: सुबह


 


  

Wednesday, December 16, 2015

सजदा

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला

टूट के मैं बिखर ही न जाऊं
नेकियों का सिला दे ऐ मौला

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला...

रूह को मेरी तू पाक़ कर दे
नेमतों से मेरी झोली भर दे
तेरे सजदे में झुकता रहूं मैं
हर गुनाह तू मेरा माफ़  कर दे

मेरी आंखों में बस, तेरा ही नूर हो
हो कुछ ऐसा नशा, हर कोई चूर हो
जाम ऐसा पिला दे ऐ मौला ...

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला...

मुझको जन्नत की परवाह नहीं है
तेरे कदमों में जन्नत मेरी है
तेरे दर से उठूंगा न खाली
मेरे दिल की तमन्ना यही है

भूख तेरे दरस की है मिटती नहीं
भूख मर जाए और दर्द भी हो नहीं
दवा ऐसी खिला दे ऐ मौला...

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला...

फ़ना हो जाऊं हस्ती में तेरी
झूम जाऊं मैं मस्ती में तेरी
मुझमें मैं न रहे यार बाकी
तू ही तू हो इबादत में मेरी

तेरी रहमत बड़ी, तेरी बरक़त बड़ी
तू है रहबर मेरा, मेरी हसरत बड़ी
तेरी चादर दिल दे ऐ मौला ...

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला...

टूट के मैं बिखर ही न जाऊं
कर्मों का कुछ सिला दे ऐ मौला

अटल

नदी की दो धारों सा चल कर
गिरते-पड़ते संभल-संभल कर
सागर मंथन जैसे छल कर
निर्मल, निर्झर, निश्चल कल-कल
सतत, निरंतर बह सकते हो...

सूरज की किरणों से ऊपर
चांद की गहराई को छूकर
देह जलाती निर्मम लू पर
जलती, तपती, बंजर भू पर
शीतल झोंकों सा बह सकते हो...

लक्ष्य न कोई हो जीवन में
जोगी भटक रहा हो वन में
ज्वाला भड़क रही हो तन में
बात दबी हो कोई मन में
खुले  गगन में कह सकते हो...

सीमाओं ने गर बांटा हो
अंदर ही अंदर काटा हो
रिश्तों ने तलछट छांटा हो
और अपनों ने भी डांटा हो
दिल के अंदर रह सकते हो...

संकट ने हो हर पल घेरा
पल-पल में सदियों का फेरा
उस पर जगपरिहास हो तेरा
पर निर्णय अगर अटल हो तेरा
कड़वी बातें सह सकते हो 

Thursday, December 10, 2015

घर

जब नए मकान बनते हैं
तो पुराने घर टूट जाते हैं
साथ ही टूट जाती है यादों की कड़ी,
वो कड़ी जो पिरो के रखती है घर को,
चार दीवारों को घर नहीं कहते
चंद खिड़कियों का नाम भी घर नहीं होता
कंक्रीट नहीं, रिश्तों की दीवारें होती हैं घरों में
और संवाद के लिए होती हैं खिड़कियां
फर्श पर चौंधियाती रोशनी का नाम भी घर नहीं होता
बिन रोशनी के भी सब साफ़ दिखता है घरों में
दीवारों पर लटकी महंगी तस्वीरों का नाम भी घर नहीं होता
कुछ खुशियों के रंग होते हैं,
जिनसे बनती है घर की मुकम्मल तस्वीर
जब नए मकान बनते हैं तो
दीवारें खड़ी हो जाती हैं घरों के बीच
कमरों की तरह बंट जाते हैं लोग
लेकिन दादी अम्मा का पुराना कमरा किसी के हिस्से नहीं आता
वो तो ढह जाता है पुराने घर के साथ ही
जब नए मकान बनते हैं तो
छत से सटे रोशनदान बड़ी-बड़ी खिड़कियों में बदल जाते हैं
लेकिन फिर भी अंधेरा नहीं मिटता मकानों का
सिर्फ चिकने फर्श का नाम ही घर नहीं होता
गोबर की लिपाई वाले कमरे में मजबूत रहती है पैरों की पकड़
चिकने फर्श पर तो अक्सर फिसल जाते हैं सब,
कमरे में खुदी अंगीठी में होती है अजब सी गर्माहट
मूंगफली का स्वाद भी अलग होता है ड्राइंग रूम में सजे ड्राई फ्रूट से
सिर्फ नरम गद्दों का नाम ही घर नहीं होता
रस्सी से बुनी चारपाई भी काफी होती है थकान मिटने के लिए
काफी होती है धूप में बिछाकर गप्पें लड़ाने के लिए
काफी होती है खट्टे का ज़ायका लेने के लिए
काफी होती है स्वेटर पर नया फूल बनाने के लिए
जब नए मकान बनते हैं तो कुचली जाती हैं आंगन की क्यारियां
जमीन से जुड़े फूल गमलों में सज जाते हैं
लेकिन तरसते रहते हैं हमेशा ज़मीन के लिए
सिर्फ एलईडी के शोर का नाम ही घर नहीं होता
बच्चों की मस्ती और बहनों की ठिठोली भी काफी होती है
चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए
कतरा-कतरा बिखरे लोगों का नाम घर नहीं होता
इसीलिए मकानों से कहीं बेहतर होता है घर
चंद दीवारों का नाम ही घर नहीं होता।

गीत

जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे

होंठ चुपचाप रहें फिर भी ज़िक्र करते हैं
ये वो शोले हैं जो पानी में सुलग उठते हैं
मैंने शोलों की ही तासीर बदल रखी है
ये सुलगते नहीं पानी में, भड़कते क्यों हैं...

जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे

है जो तस्वीर ख़यालों में तेरी यादों की
मैंने तस्वीर वो सिरहाने छिपा रखी थी
मैंने सोचा था कि मिट जाएंगे कुछ रंग यहां
कैसे ये रंग हैं कि और चमकते क्यों हैं...

जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे
 
बिखरे रिश्तों का कोई पुल था जो अब टूट गया
कोई भी राह नहीं अब तो नज़र आती है
कोई इक डोर तो है दरमियां जोड़े हमको
जब भी खिंचती है तो दम घुटता हमारा क्यों है...

जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे

इसी उम्मीद पे ज़िंदा हैं फ़साने अपने
वो फ़साने जो कभी हो नहीं पाए पूरे
इन फ़सानो की फक़त इतनी गुज़ारिश सुन लो
न अधूरा इन्हें रहने दो ये अधूरे क्यों हैं...
         
जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे

ठंडी बस्तियों की आग

ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है
अब ये सुलगेंगी नहीं, भड़क उठेंगी
राख कर देंगी शहर की गंदगी को
और खुद भी हो जाएंगी राख
ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है...
शहर बच नहीं पाएगा इन शोलों से
क्योंकि शहर ने ही जलाए हैं
इन बस्तियों के सपने
खुद आबाद होने के लिए
अमलतास के जंगल
बिजली की तारों में झुलस गए
और धुआं तक न निकला
लेकिन आज चिंगारी उठी है एक      
ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है...
ये जो शोर सा चुभ रहा है कानों में
ये शोर नहीं है, चीखें हैँ
उन मासूमों की
जिनके हाथ कुचल दिए थे तुमने
और छोड़ दिया था भीख मांगने के लिए
अब ये हाथ और मजबूत हो गए हैं
ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है...
यातना देने वाले याचक बन गए हैं
गला घोंटने वाले हाथ प्रार्थना कर रहे हैं
भय दिखने वाली आंखें डरी हुई हैं
रौंदने वाले पांव लड़खड़ा रहे हैं
ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है...

चांद

काट कर रखा हो जैसे चांद कोई फर्श पर
घुल रहा हो डली-डली
पिघल रहा हो कतरा-कतरा
ठंडे पहाड़ों से उतर कर
झील में गोते लगा रहा हो जैसे
छींटे उड़ा रहा हो जैसे
तारे बेचैन हैं, हैरान हैं
चांद की ये मस्ती देखकर
कह रहे हों जैसे
अब घर लौट आओ
रात  बहुत हो गई है...

Monday, October 19, 2015

मैं

खुद से अपना आप भिड़ा दूं, तो समझूं कि मैं हूं
समझौतों की दीवार गिरा दूं, तो समझूं कि मैं हूं
कांटों से भरी राह है मेरी मंजिल की जानिब
इस राह पे चल के दिखा दूं, तो समझूं कि मैं हूं
ठुकराए जो भी रिश्ते, खुदगर्ज़ होके मैंने
उन रिश्तों का कर्ज़ चुका दूं, तो समझूं कि मैं हूं
नहरों से उगार्इं हैं, लहलहाती हुई फसलें
बंजर में सोना उगा दूं, तो समझूं कि मैं हूं
घबरा गया मैं देखो, ज़माने की तोहमतों से
इन फिकरों पे मुस्कुरा दूं, तो समझूं कि मैं हूं
ख़ामोश सहे-देखे, सौ सितम ज़माने के
अब जुबां से आग लगा दूं, तो समझूं कि मैं हूं
खुद के लिए खाए-जिए, रहे अलमस्त से
भूखे को भरपेट खिला दूं, तो समझूं कि मैं हूं
होठों से लगाई हैं, फूलों की तितलियां भी
कांटे गले लगा लूं, तो समझूं कि मैं हूं
मुश्किल नहीं है बिल्कुल, दुश्मन बनाना लेकिन
कुछ यार बना लूं, तो समझूं कि मैं हूं
मझधार छोड़ जाना आसां बहुत है शायद
ये साथ निभा लूं, तो समझूं कि मैं हूं

Tuesday, October 6, 2015

जीत हार

ज़ार ज़ार रोया, मैं बार-बार रोया
अपनी ही मौत पे, हज़ार बार रोया
बेमौत मर रहा था, मुफ़लिसी में जीकर
चौखट पे अमीरों की, सिर मार-मार रोया
बेरंग ज़िंदगी में, मज़हब ने रंग डाले
लहू का ज़र्रा-ज़र्रा फिर तार-तार रोया
मिलने को ज़िंदगी से, लहरों की तरह उमड़ा
नदी के साहिलों सा, आर-पार रोया
मंज़िल की दौड़ में थे, मौकापरस्त सारे
जीती हुई बाज़ी, मैं हार-हार रोया

Monday, October 5, 2015

पिंजरे के पंछी

पिंजरे के पंछी उड़ जा रे
ज़ंजीरें पिघला उड़ जा रे
हो जा हवा पे सवार
बनके बादलों का यार
नीले आसमां में दूर
हो के मस्तियों में चूर
अनजानी राह में मुड़ जा रे
पिंजरे के पंछी उड़ जा रे...

बाहें खोलेगा समंदर
जाना लहरों के अंदर
रेत पे फिसल न जाना
मिलेगा तुम्हें भी ठिकाना
मिट्टी से जा के जुड़ जा रे
पिंजरे के पंछी उड़ जा रे...

जंगल घनघोर अंधेरा
लेकिन होगा सवेरा
आशा की ओस बिछेगी
गहरी ये धुंध छंटेगी
धूप में घुल के उड़ जा रे
पिंजरे के पंछी उड़ जा रे...

ज़िंदगी में पाया जो भी
तेरे हिस्से आया जो भी
उसी को बना के अपना
आंखों में सजा के सपना
सुब्हो की नींद सा उड़ जा रे
पिंजरे के पंछी उड़ जा रे...

Wednesday, September 16, 2015

क्या करूं

कहने को ज़िंदा हूं पर, ज़िंदा कहा के क्या करूं
लाश जैसा बोझ हूं, इस बोझ का मैं क्या करूं

है मर रही इन्सानियत, रोज़ मेरे सामने
हूं खड़ा लाचार, आए कोई हाथ थामने

एक बच्चे को बचा पाया नहीं मैं भूख से
देश की रक्षा को एटम बम बना के क्या करूं

ये ख़ून कैसा ख़ून है, जो बोलता न खौलता
चंद सिक्कों के लिए ईमान जिसका डोलता

बुत खड़े चुपचाप जैसे, हैं तमाशा देखते
जी रहे क्यों महल की, इन सीढ़ियों पे रेंगते

बाज़ुओं में ज़ोर कितना है, न हमसे पूछिए
मुल्क़ बिस्मिल का है ये, किस्सा सुना के क्या करूं

क्यों नहीं करता पहल, मैं पहले अपने आप से
कब तलक मरता रहूंगा, क्रोध से संताप से

हैं खड़े दुश्मन, ज़माने भर के मेरी राह में
मैं मगर डरता नहीं, इस ज़िन्दगी की चाह में

है अंधेरा रास्ता, इस बात का भी भय नहीं
रोशनी जो चुभ रही आंखों में उसका क्या करूं

एम एम कलबुर्गी को श्रद्धांजलि

ये बेड़ियां सी क्यों कसती जा रही हैं चारों ओर?
ये इतना पहरा किसलिए है आखिर?
ये मेरे हाथों को कस कर क्यों बांधा जा रहा है?
इतना कस कर कि कलम भी नहीं पकड़ पा रहा हूं।
क्यों अंधेरी कोठरी में डाला जा रहा है मुझे?
क्यों तेज़ाब से सने पत्थर फेंके जा रहे हैं मेरे घर के शीशों पर?
क्यों ये लश्कर बढ़े चले आ रहे हैं मेरी ओर?
आकाओं के इशारे पर क्यों दनदना रहीं हैं गोलियां?
आस्तीन ऊपर कर क्यों चिल्ला रहे हैं गर्म खून से भरे शोहदे?
क्या इसलिए कि तुम्हारी खोखली परंपराओं को ठोकर मार दी है मैंने?
शिथिल से मेरे शरीर को ख़त्म करने के लिए क्यों इतनी ताक़त झोंक रहे हो?
क्या इसलिए कि तुम घबरा गए हो बुरी तरह एक छिहत्तर साल के बूढ़े से?
और ये शिथिल सा शरीर तुम्हें लगने लगा है इक विशाल शिला सा
या की मेरे लिखे शब्दों के कोलाहल से फटने लगे हैं तुम्हारे कान के परदे?
और भरभरा के गिरता हुआ नज़र आ रहा है तुम्हें अपना अस्तित्व
बंदूकों, तोपोँ से लैस होकर भी लाचार क्यों दिख रहे हो मेरे सामने?
क्यों मिटाने पर तुले हो मेरा नामोनिशां?
क्या इसलिए कि जानते हो की परास्त हो जाओगे मेरे शब्दों से?
ढेर हो जाएंगे तुम्हारे सभी आडंबर
इसलिए मेरी ज़ुबान ही छीन लेना चाहते हो मुझसे
कितने नासमझ हो, इतना भी नहीं जानते?
शब्द मिट नहीं सकते कभी
वो तो तैरते रहते हैं हवाओं में क्रांति गीत बनकर
सदा के लिए।

Wednesday, September 2, 2015

सपनों का शहर

कोई इक अनजान नगर हो
ज़ात की ना पहचान मगर हो

काम से सब पहचानें जाएं
नाम की ना जो भूख अगर हो

मंज़िल अलग-अलग हो बेशक
सबकी लेकिन एक डगर हो

मिलकर बांटें खुशियां लेकिन
सबके ग़म की हमें ख़बर हो

दूजे का कोई हक़ ना मारे
थोड़े में भी हमें सबर हो

छल और कपट न हो जीवन में
सीधा सा आसान सफ़र हो

अस्मत सबकी रहे सलामत
ऐसी उजली पाक़ नज़र हो

धूप लगे तो छांव बने जो
बरगद जैसा कोई शजर हो

धर्म के नाम पे ख़ून बहे ना
हंसती गाती राह गुज़र हो

जवां दिलों के ख़्वाब ना टूटें
ऐसी दिलकश शाम-सहर हो

शहर की ख़ातिर गांव न उजड़े
गांव के जैसा कोई शहर हो

उन्मुक्त

छत के सुराख़ से
फर्श पर गिरती रोशनी
पकड़ी है कभी?
घुप्प अंधेरे कमरे में
जैसे चांद से उतर आई हो
कोई सीढ़ी उम्मीद की
कभी कोशिश की है
इस सीढ़ी को पकड़कर
चांद तक पहुंचने की?
उन्मुक्त उड़ जाने की?
बचपन में ताकत नहीं थी
नन्हे हाथों में
जितनी बार भी कोशिश करते
हाथ में कुछ न आता
फर्श पर लेकिन चमकता रहता
एक सफेद गोल चकत्ता
कुछ छोटे छोटे कीट-पतंगे
चढ़ जाते आसानी से उस रोशनी में
और देखते ही देखते आज़ाद घूमते
खुले गगन में
स्लेटों के सुराख़ कितने बड़े लगते थे तब
अब तो बरसों हो गए
उस रोशनी को देखे
भला पक्के मकानों की छत पर भी
सुराख़ होते हैं क्या??

Wednesday, August 26, 2015

बकाया मौत

होश संभाला राहों में थी
मैं अब्बा की बाहों में थी
अब्बा रोज़ बाज़ार घुमाते
खेल-खिलौने खूब दिलाते
बहुत संभाला करते मुझको
ज़ोर उछाला करते मुझको
सांस अटक जाती थी ऐसे
मौत बकाया रह गई जैसे
अब्बा की गोदी में गिरती
सांस मेरी तब जाके फिरती
डर सारा गायब हो जाता
चेहरा फूलों सा खिल जाता
फिर मज़हब की तलवारों ने
मज़हब के ठेकेदारों ने
अब्बा के बाज़ू काट दिए
सरहद में गांव बांट दिए
फिर होश संभाला राहों में थी
मैं अब खूनी बाहों में थी
इक तलवार उठी फिर सट से
हाथ बढ़ा फिर कोई झट से
जान बची फिर जैसे-तैसे
मौत बकाया रह गई जैसे
साल गुज़ारे रोते-रोते
बोझ ग़मों का ढोते-ढोते
बिन सावन के जोबन बीता
जोबन जो आंसू में रीता
फिर होश संभाला राहों में थी
मैं साजन की बाहों में थी
मरती सांसों को जान मिली
मुझको नई पहचान मिली
अपना पिछला आप भुलाकर
नई सुबह से हाथ मिलाकर
आंगन में इक फूल खिलाया
उम्मीदों का दीप जलाया
रहे दर्द भी आते-जाते
दिए बिसारे रिश्ते नाते
फिर लौटी नफरत की आंधी
टूटी जो उम्मीदें बांधी
उखड़ी सांस अटक गई ऐसे
मौत बकाया रह गई जैसे
फिर होश संभाला राहों में थी
मैं बेटे की आहों में थी
मुझको मिट्टी ढूंढ रही थी
पर मैं आंखें मूंद रही थी
कहीं मिली न खोई माटी
मैं इतने हिस्सों में काटी
हारी-थकी गिरी फिर ऐसे
मौत बकाया मिल गई जैसे
मौत बकाया मिल गई जैसे

Thursday, August 13, 2015

ज़िंदगी


है ज़िंदगी से भी लंबी, हर राह ज़िंदगी की
खुशियों की कोई दस्तक, हर आह ज़िंदगी की

मुश्किल नहीं था रहना, ज़िंदा हमेशा लेकिन
है ज़िंदगी की दुश्मन, ये चाह ज़िंदगी की

अंधियारे हैं रास्ते पर, मायूस तुम न होना
बुझती तो कभी जलती, है दाह ज़िंदगी की

जो कामयाब हो तो, ग़मों को याद रखना
पड़ती है बड़ी महंगी, ये ‘वाह’ ज़िंदगी की

नज़रों से गिरा जो भी, हर बार गिरा फिर वो
संभले को नहीं मिलती, फिर थाह ज़िंदगी की

न मौत ही मिलेगी, मर-मर के जो जिये तो
जीने भी नहीं देगी, ये गाह ज़िंदगी की

जीने का मज़ा है तो, दिल खोल के जीने में
है मौत से भी बद्तर, ये डाह ज़िंदगी की


Thursday, August 6, 2015

इश्क़ की जादूगरी

ये है इश्क़ की जादूगरी
जादूगरी है ये इश्क़ की
ये ख़ुदा भी है, ये दुआ भी है
ये घटा भी है, ये फिज़ा भी है
ये जुनूं भी है और जां भी है
ये वफ़ा भी है, ये जफ़ा भी है

ये है एक मंजिल पाक़ सी
ये है एक मुट्ठी राख सी
फैले ये जब, कर दे भसम
ये है एक जलती आग सी

ये है इश्क़ की जादूगरी...

शोलों के हैं क़तरे यहां
हैं मौत के खतरे यहां
ना दिन है ना रातें यहां
बेखौफ़ सब बातें यहां

बस धूप है, ना छांव है
मिट्टी में जलते पांव हैं
इस इश्क़ में जीता वही
जिसका चला हर दांव है

ये है इश्क़ की जादूगरी...

रूहों का इक बाज़ार है
जिंदा है पर लाचार है
इक दर्द है, आज़ार है
लुटता हुआ गुलज़ार है

देखो जो ख़्वाब हसीन है
महफिल बहुत रंगीन है
उतरे नशा जब प्यार का
किस्सा बहुत ग़मग़ीन है

ये है इश्क़ की जादूगरी...

मिल जाए तो, खोना नहीं
गुम जाए तो, रोना नहीं
हो बोझ तो ढोना नहीं
और बेवफ़ा होना नहीं

फिर भी कभी जो राह में
सिमटी हुई सी आह में
यादों का झोंका ले उड़े
जलना नहीं उस गाह में

ये है इश्क़ की जादूगरी...

ये इक अजब सा सरूर है
सिर पे चढ़े तो फितूर है
अल्हड़ भी है, मग़रूर है
इस उम्र का ही क़सूर है

रुकता नहीं, रोके कभी
मुड़ता नहीं, मोड़े कभी
हिस्सों में जो बंट जाए तो
जुड़ता नहीं, जोड़े कभी

ये है इश्क़ की जादूगरी...

इसमें बड़ी हैं नज़ाकतें
मासूमियत ओ शराफतें
कुछ मदभरी सी रफाकतें
कुछ शोख़िया व अदावतें

चेहरा कोई भा जाए तो
आंखों में गर छा जाए तो
सुनता नहीं फिर दिल कभी
इक बार ये आ जाए तो

ये है इश्क़ की जादूगरी...

Tuesday, July 28, 2015

कमाल के कलाम

कलाम थे ही कमाल। 83 साल के नौजवान। इतनी ऊर्जा, इतनी लगन, इतनी सादगी और इतना समर्पण। हर किसी में ये गुण संभव नहीं। हाथों में गीता-कुरान व बाइबल और जुबान पर फिजिक्स। कर्म से विशुद्ध वैज्ञानिक और जीवन में आध्यात्मिक, संगीत प्रेमी, हंसमुख व मिलनसार। बच्चों और युवाओं के हीरो। कभी अभावों का रोना नहीं रोया। कोई शिकायत नहीं की। निरंतर कड़ी मेहनत के साथ काम करते रहे। सपने देखे भी, दिखाए भी और साकार भी किए। सौ फीसदी खरा सोना थे कलाम। किसी एक धर्म के नहीं, किसी एक जाति के नहीं। संपूर्ण भारतीय। पूरे राष्ट्र का गौरव। जिससे बात करते, वही कायल हो जाता। तभी शायद निधन के समय तक उनका किसी से विरोध नहीं हुआ। सबने सदा खुली बाहों से उनका स्वागत किया और कलाम ने भी सबको घुट के गले लगाया। कहते थे-‘मैं शिक्षक हूं और शिक्षक के रूप में ही पहचाना जाना चाहता हूं।’ सीखने और सिखाने को हमेशा लालायित।
      कलाम पक्के कर्मयोगी थे। उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था-‘मेरी मृत्यु पर छुट्टी मत करना, अगर मुझसे प्यार करते हो, तो उस दिन ज्यादा काम करना।’ खुद भी डटकर काम करते और दूसरों को भी प्रेरणा देते। जिंदगी के अंतिम पलों में भी शिलांग के आईआईएम में पढ़ाते हुए दुनिया को अलविदा कहा। आराम में वक्त जाया नहीं करते। गाड़ी में ही सोते। शिलांग आईआईएम जाते समय भी इस बात को लेकर चिंतित थे कि संसद नहीं चल रही। अपने सहयोगी से कहा कि आईआईएम में स्टूडेंट्स से इस पर सुझाव मांगूंगा। देश को 2020 तक विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देखने वाले कलाम हर माह एक लाख युवाओं व बच्चों से मिलते थे। युवाओं से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं। लगाव भी बहुत था। यही वजह है कि सोशल मीडिया पर उनके सबसे ज्यादा फॉलोअर युवा व बच्चे ही थे।
       बेहद गरीब परिवार में जन्मे कलाम ने अखबार बांटने से अपनी पहली कमाई की। आज वही शख्स देश-दुनिया की अखबारों में छाया हुआ है। कलाम की शख्सियत ही ऐसी थी कि कोई उनके जादू से बच न सका। वर्ष 2005 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने कलाम से तीस मिनट की मुलाकात के बाद कहा था, ‘धन्यवाद राष्ट्रपति महोदय। भारत भाग्यशाली है कि उसके पास आप जैसा एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति है।’ कलाम की ईमानदारी, सादगी, दयालुता, कर्मठता, समर्पण व त्याग के इतने किस्से हैं कि  बखान करने में एक साल कम पड़ जाए। यही बात कलाम को सबसे अलग करती है। देश को परमाणु शक्ति बनाने वाले ‘मिसाइल मैन’ के लिए आज देश की हर आंख दिल से नम है। कलाम को सलाम!!

Friday, July 24, 2015

वक़्त

वक़्त की सान पर पल-पल घिसते लम्हे
और तेज़ हुए चले जा रहे हैं
काटते चले जा रहे हैं यादों के दरख़्त
ये दरख़्त जब गिरते हैं पहाड़ी से
तो साथ ले उखड़ते हैं बहुत सी जड़ें भी
खूब तबाही मचाते हैं
छोटी-छोटी खुशियों जैसी झाड़ियां
कुचली जाती हैं इनके तले
कच्ची कमर के पौधे टूट जाते हैं
बाहों की तरह सहारा देने को फैलीं शाखें
चटख जाती हैं, रिश्तों की मानिंद
आंसुओं के सैलाब की तरह
बह निकलती है भुरभुरी मिट्टी
फिर ढलते सूरज की किरणों को
मिलता है नया रस्ता
दरख़्त गिरने से खाली हुई जगह पर
बिखरने लगती है रोशनी
धीरे-धीरे आदत सी पड़ जाती है
अंधेरे जंगल को रोशनी की
घास भर देती है पहाड़ी के ज़ख्मों को
शाखें फिर हरी हो उठती हैं
टूटे दरख़्त के तने से फिर फूट पड़ती है
कोई हरी टहनी, बिना किसी शिकायत के
सब पहले की तरह चलने लगता है
जैसे कुछ हुआ ही नहीं यहां...

Tuesday, July 21, 2015

निमंत्रण

मिट्टी-गारे की दीवारें मुझसे बातें करती हैं
पूछती हैं मुझसे
खिड़की के छज्जे पर जो दीया रखा था तुमने
उसका तेल कबका सूख चुका है
लाल डोरी की बाती राख हो चुकी है
रातें और स्याह हो गईं हैं
दीये से चिपके तेल को चाट रहीं हैं चींटियां
लेकिन नीचे अब भी मौजूद है
थोड़ी सी चिकनाई
फिर भी नहीं आओगे? दीया जलाने?
बस यूं ही पूछ लिया, क्योंकि...
कभी-कभी सिर टकरा जाता है छज्जे से
यहां से गुजरते मुसाफिरों का...।

Monday, July 13, 2015

विभाजन, सांप्रदायिकता और विस्थापन का दर्द बयां करता ‘तमस’

सांप्रदायिकता तर्क शक्ति को खत्म कर देती है। या यूं कहें कि अंधा बना देती है। इस पर विभाजन की पीड़ा और विस्थापन की मार भी शामिल हो जाए, तो दर्द और बढ़ जाता है। इसी दर्द को बयां करता है भीष्म साहनी का कालजयी उपन्यास ‘तमस’। तमस का अर्थ है ‘अंधकार’। एक ऐसा अंधकार जिससे बाहर निकलने के संघर्ष में किरदार पल-पल घायल होते हैं, मरते हैं। यह उपन्यास 1973 में प्रकाशित हुआ, लेकिन कहानी 1947 की है। भीष्म साहनी को इस कृति के लिए 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘तमस’ की कहानी में अप्रैल 1947 के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है।

तमस की कहानी सीमा से सटे एक छोटे से शहर की की परिस्थितियों के बारे में है। कहानी की शुरुआत में ही मुख्य किरदार सफाई कर्मचारी नत्थू एक क्षेत्रीय मुस्लिम राजनेता की चाल का शिकार हो जाता है। नेता उसे कुछ पैसे देकर धोखे से एक सुअर को मरवा देता है। उसे बताया जाता है कि ऐसा मांस के लिए किया जा रहा है, लेकिन अगली सुबह मृत सुअर एक स्थानीय मस्जिद की सीढ़ियों पर पड़ा मिलता है। इससे शहर में तनाव की स्थिति बन जाती है।  राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े कुछ सामाजिक कार्यकर्ता किसी तरह हालात को शांत बनाए रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन धीरे-धीरे पूरा शहर नफरत की आग में झुलसने लगता है। हिंदू और मुस्लिमों में फसाद बढ़ने के बाद शुरू होती है सबसे बड़ी चुनौती। पलायन। नत्थू मन ही मन में इस सारे फसाद के लिए खुद को दोषी मानता है। हालांकि, उससे धोखे से यह काम करवाया गया था। यह कहानी हमारे देश की दशा का सही चित्रण करती है की  कैसे, भोले-भले लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेल कर सियासत से जुड़े लोग फायदा उठाते हैं। पलायन की पीड़ी को जिस तरह से भीष्म साहनी से चित्रित किया है, उसे हर कोई खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है। छोटे से शहर से आर्मी के राहत शिविर तक की नत्थू की यात्रा बेहद चुनौतियों से भरी है। गर्भवती पत्नी साथ होने के कारण नत्थू को कई समझौते करने पड़ते हैं। वहीं, बरसों से जमे-जमाए घर-बार और पुश्तैनी संपत्ति को छोड़ कर जाते लोगों के दर्द को मार्किक घटनाओं और परिस्थितियों के माध्यम से उपन्यास में बखूबी उभारा गया है। धर्म की राजनीति और धर्म के दर्शन को जिस अंदाज में पेश किया गया है, उससे यह उपन्यास और भी संजीदा बन पड़ा है।

उपन्यास में साहनी ने पूरे सौ वर्ष के कालखंड को उकेर दिया है। दासता की बेड़ियों में जकड़े हिंदुस्तान में कैसे आजादी के सपने जन्म लेते हैं और कैसे पलभर में बिखर जाते हैं। इसका सुंदर चित्रण किया गया है। आजादी के मायने हर किसी के लिए अलग हैं। इन मायनों की तलाश में उपन्यास का नायक अंत तक संघर्ष करता नजर आता है। राजनीति किस तरह सांप्रदायिकता का पोषण करती है, इसके जीवंत उदाहरण उपन्यास में देखने को मिलते हैं। वहीं, जहरीली संस्कृति के खिलाफ लड़ने के लिए समाज खड़ा तो होता है, लेकिन सियासत के क्रूर पंजे उसे कुचल देते हैं। भीष्म साहनी ने सांप्रदायिकता की पाशविकता का सूक्ष्म विश्लेषण कर उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर रख दिया है, जिनसे आम इनसान के हाथ तबाही के अलावा कुछ भी नहीं रह जाता। विभाजन की चुनौतियों से निपटने के लिए आम इनसान को किस कद्र अपने हाल पर छोड़ दिया गया, इस पर भी गहरा कटाक्ष किया गया है। सांप्रदायिकता और
राजनीति के दुष्चक्र से लड़ते-लड़ते उपन्यास का नायक सांप्रदायिकता का ही शिकार हो जाता है।

भाषा और परिवेश की बात करें तो हिंदी, उर्दू, पंजाबी और मिश्रित शब्दावली के उपयोग से भाषायी अनुशासन कथ्य को प्रभावी बनाता है। ग्रामीण परिवेश और आम आदमी के जीवन-यापन को भी खूबसूरत शब्दों से गूंथा गया है। तमस सिर्फ एक उपन्यास ही नहीं, बल्कि एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब हम आज तक तलाश कर रहे हैं। ऐसा सबक है, जिससे हमें सतत् सीखने की जरूरत है। समाज पर इस घटना के दुष्प्रभावों का ऐसा बहुआयामी चित्रण बहुत कम देखने को मिलता है।

Sunday, June 28, 2015

आवाज़

पीठ फेर लेने से क्या होगा?
शब्द तो फिर शब्द हैं
टकरा कर लौट आएंगे
गूंजते रहेंगे तब तक
जब तक एक भी बाकी है
सुनने वाला
दबेंगे नहीं दबाने से
टकरा कर लौट आएंगे..
यूं पीठ फेर लेने से क्या होगा?
सड़क पर चलती लाश का
हाथ पकड़ना होगा
करनी होगी मशान की अगुआई
अंगार फूंकना होगा अंदर तक
आग तो फिर आग है
भड़क उठेगी लपक कर
यूं चिंगारी बुझाने से क्या होगा?
देखना ही होगा वहशत का नाच
अपनी नंगी आंखों से
जुटाना होगा कतरा-कतरा लहू
मक्कारों का लहू बहाने के लिए
हौसला तो फिर हौसला है
निडर होकर दिखाएगा रास्ता
यूं आंखें चुराने से क्या होगा?
जुबां लड़खड़ाएगी कुछ देर
हिम्मत टूटने लगेगी
धराशायी होने लगेंगे सपने
लेकिन गला फाड़कर चिल्लाना होगा
आवाज़ तो फिर आवाज़ है
चीर देगी पहाड़ भी
यूं खामोश रहने से क्या होगा?
चमड़े के बूट तले
रौंद दिए जाएंगे अधिकार
बाल पकड़ कर सड़क पर
इज्ज़त उतारी जाएगी
लेकिन कब तक बने रहोगे पत्थर
पत्थर तो फिर पत्थर है
टूटेगा तो तबाह कर देगा
यूं बुत बने रहने से क्या होगा?

Saturday, June 27, 2015

मुलाकात

सूरज की तपिश तेज़ है, पर रात भी होगी
धूप की फिर चांदनी से मात भी होगी
दिन रात बरसना तो बादल का फ़न नहीं
बदलेगा जब ये मौसम, बरसात भी होगी

वो वस्ल के लम्हात, भुला नहीं सकता
क्यों बिगड़े थे हालात, बता नहीं सकता
रमज़ान का मौसम है, रोज़ों की फ़िक्र है
जब ईद-ए-मिलाद होगी, मुलाकात भी होगी

खामोशियों के कांच सभी टूट जाएंगे
गिले-शिकवे सारे पीछे छूट जाएंगे
खुशफ़हमियों के पर्दे हटा करके तो देखो
दुश्मनों से दोस्तों सी बात भी होगी।

Monday, June 15, 2015

वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों धुआं उठा है दूर कहीं, कहीं तो आग लगी होगी
क्यों शोर थम गया मस्जिद में, अजान कोई घुटी होगी
क्यों मंदिर सब वीरान हो गए, लहू की धार बही होगी
क्यों भीड़ लगी है कुएं पर, कोई इज्ज़तदार मरी होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों शीशमहल में रौनक है, चूल्हे की आग बुझी होगी
क्यों भूखी सो गईं बच्चियां, कुछ दाल नहीं गली होगी
क्यों मजमा सा है गलियों में, गोली कहीं चली होगी
क्यों ख़ून बहा है रिश्तों का, कोई बंदरबांट हुई होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों बहते हैं मां के आंसू, कोई ज़िंदा लाश बिकी होगी
क्यों बाप के कंधे झुके हुए, पगड़ी कहीं झुकी होगी
क्यों सड़कों पर पहरा है, कोई अस्मत कहीं लुटी होगी
क्यों नेता बेखौफ़ खड़े हैं, बत्ती नई मिली होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों गुस्से में तनीं मुट्ठियां, बेकारी राह खड़ी होगी
क्यों फाइल हटी है टेबल से, रिश्वत कहीं बंटी होगी
क्यों पकड़े मासूम फिर गए, पुलिस की खूब चली होगी
क्यों ऊसूल नीलाम हो गए, कीमत सही मिली होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों सीमा पर सन्नाटा है, रिश्तों की रेल चली होगी
क्यों फिर मुल्कों को बांटा है, शतरंज सी चाल चली होगी
क्यों दर्द उठा है सीने में, मिट्टी कहीं छिनी होगी
क्यों झंडे झुके हैं सरहद पर, शहीद की लाश मिली होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?
वो दुनिया कैसी होगी?

नेरूदा तुम कब आओगे?












नेरूदा तुम कब आओगे
मन की गिरहें सुलझाओगे
तुम कहते थे चुप रहना बात बुरी है
लेकिन कुछ लोग खड़े हैं अब भी
लिहाफ ओढ़े सन्नाटों का
इस लिहाफ में आग लगाने
कब आओगे?
अंधे कुएं में कुछ लाशें तैर रहीं हैं
मंदिर-मस्जिद जिनकी आंखों का बैर रहीं हैं
उन आंखों को ख़्वाब दिखाने
कब आओगे?
नीलामघरों में अब भी लगती है जिस्मों की बोली
नोच ले जाते हैँ बाज़ अब भी कंधों का मांस
फब्तियों के डर से अब भी झूल जाती हैं जवानियां
खून से सने पंजों को झुलसाने
कब आओगे?
ख़ुद्दारों के घुटने अब भी झुक जाते हैं लाल बत्तियों के आगे
दफ्तरों में बूढ़े कंधों पर अब भी भारी पड़ता है नोटों का बोझ
खुशामद करने वाले हाथोँ का अब भी लिया जाता है बोसा
तपते फ़र्श पर हथेलियां बिछाने
कब आओगे?
अन्न उगाने वाले अब भी मरते हैं भूखे
अब भी मज़दूरों के बच्चे बिलखते हैं सड़कों पर
नौकरी के लिए अब भी गिड़गिड़ाना पड़ता है
जाहिलों के सामने
अय्याशों का खेल मिटाने
कब आओगे?
कुछ भी तो नहीं बदला नेरूदा
तुम्हारे जाने के बाद
जो लोग जगाए थे तुमने
वो सब मुर्दा हो गए
तुम ज़िंदा हो लेकिन अब भी
ख़ामोश क्यों हो लेकिन?
तुम ही तो कहते थे
चुप रहना बात बुरी है।
पंखों को परवाज़ बनाने
कब आओगे??
नेरूदा तुम कब आओगे?
(पाब्लो नेरूदा की याद में) 

Friday, June 5, 2015

पत्थर

पत्थरों से बाहर निकलो
पत्थरों को तोड़ कर
कि ऊब नहीं जाते तुम
यूं पत्थर बने हुए
कभी हड्डियां खोलने को मन नहीं करता ?
या बने रहना चाहते हो पत्थर ही
बेजान से, नि:शब्द
या जानते नहीं कि कुचल सकते हो
रूढ़ियों को मजबूती से
क्योंकि हो पत्थर इसलिए
तुम्हारा बेनूर होता चेहरा
सपाट हो जाएगा इक दिन
फिर मूरत से घिसते-घिसते
बन ही जाओगे सच में पत्थर
कोई नहीं फेरेगा नरम अंगुलियां तुम पर
कभी ज़लज़ले में टूट कर बिखर जाओगे
कोई नहीं पहचान पाएगा तुम्हारा
अस्तित्व और गौरवमयी इतिहास
इसीलिए कहता हूं
पत्थरों से बाहर निकलो
पत्थरों को तोड़ कर।

Thursday, June 4, 2015

ख़्वाब-2

सुलगती हथेलियों में
अंजुरी भर ठंडे ख़्वाब
संजो कर रखे थे
इक ठोकर से छिटके
सीढ़ियों से बिखरते हुए जा गिरे
मेरी ड्योढ़ी पर
फिर फटी चप्पल से झांकती
एड़ियों के बीच
मसले गए
गर्म कुरकुरी रेत पर
एड़ियां नहीं छिलीं
लेकिन ताबीर छिल गई
मेरे ख़्वाबों की
अब डर डर के देते हैं दस्तक
मेरी ड्योढ़ी पर...

कब तलक

212 212 212 212
आपके प्यार में रोएंगे कब तलक
रात ढल जाएगी सोएंगे कब तलक।
ख्वाहिशें बोझ बन जाएंगी गर सभी
या ख़ुदा बोझ ये ढोएंगे कब तलक।
जो मिला राह में छूटता ही गया
इस तरह हमसफर खोएंगे कब तलक।
याद में जब कभी आएंगे हादसे
आंसुओं से उन्हें धोएंगे कब तलक।
नफरतों की फ़सल काटते तुम रहे
प्यार के बीज हम बोएंगे कब तलक।

Saturday, May 23, 2015

सलीब

आखिर अरुणा मर गई
और जाग गई हमारी करुणा
बयालिस साल बाद
कानून की दुहाई देते रह गए
कानून के रक्षक
और भक्षक आज़ाद हो गए
हम देखते रहे तमाशा
और हताशा फैलती रही
उन पथराई आंखों में
जिंदगी मरती रही तिल-तिल
इक उजाड़ बिस्तर पर
हम कनस्तर पीटते रहे कानून का
आज नहीं मरी अरुणा
वो तो मर गई थी बयालिस साल पहले
आज तो बस उतारी है
सलीब से...

Wednesday, May 13, 2015

अलविदा मैराज़

इक दिन अचानक
आ गया शाही फरमान
छोड़ कर चले जाओ यह जमीं
ये रस्ते, ये गलियां, ये घर
छोड़ कर चले जाओ ये पीपल
ये खेतों की मेढ़ें, ये पनघट
छोड़ कर चले जाओ स्कूल की घंटी
मस्जिद की अजान, टेंपो की डुग-डुग
छोड़ कर चले जाओ मेले की फिरकी
रंग-बिरंगी टॉफियां और लट्टू का खेल
छोड़ कर चले जाओ वो चुहलबाजियां
वो अल्हड़ गप्पें, वो बेबाक ठहाके
छोड़ कर चले जाओ अब्बा की ऐनक
अम्मी की साड़ी, भाई की किताबें,
बहन के गानों की कैसेट भी
छोड़ कर चले जाओ पकती हुई फसलों की खुशबू
चक्की की खर्र-खर्र, आंगन में सूखती आम की डलियां
... और मैं चला भी गया
पानी से घिरे टापू पर
फिर भी रहा प्यासा हमेशा
ख़ुश्क जैसे रेत सा
बिखरता भी रहा रेत की ही तरह
बरसों खींचता रहा लकीरें
बंजर जमीन की पेशानी पर
फिर इक दिन एक हवा के झोंके ने
ला पटका उसी जमीन पर
चंद रोज़ लगे, घुलने में, बहने में
फिल घुल ही गया आखिर उसी नम मिट्टी में
जहां से फेंका था तुमने
... आज मेरी कब्र खोद कर देखो
पिंजर बन चुकीं मेरी मुट्ठियों में
अब भी कैद है थोड़ी सी मिट्टी!!!

Monday, May 4, 2015

अंतर्मन

1222 1222 1222
करोगे जो कभी बातें फिज़ाओं से
मिटेंगी दूरियां दिल की खलाओं से

गरजने का अगर हो डर मिटाना तो
कभी दिल खोल कर मिलना घटाओं से

अकड़ना भी बहुत अच्छा नहीं होता
शजर भी टूट जाते हैं हवाओं से

ख़ुदा के सामने सजदा नहीं करते
मगर कुछ काम बनते हैं दुआओं से

मुहब्बत क्यों खुदाया सुकूं नहीं देती
कभी पूछो हसीनों से बलाओं से

Monday, April 27, 2015

खेत पर बवंडर

सर्द पहरे, ज़र्द चेहरे
सुर्ख आंखें, दर्द गहरे
फर्ज़ पर है कर्ज़ भारी
ज्यों पुराने मर्ज़ ठहरे

नींद गुम है, चैन गुम है
वो सुहानी रैन गुम है
है डराती रात काली
ख़्वाब सोचे थे सुनहरे

छत पे है नीला समंदर
खेत पर टूटे बवंडर
फरियाद पे सय्याद चुप है
होंठ बंद और कान बहरे

मौत पर ये शोर देखो
और सियासी ज़ोर देखो
लाश पर भी हैं निगाहें
आंसुओं के रंग दोहरे

खेल कैसा है मुक़द्दर
कहीं रेशम, कहीं खद्दर
मांग कर मिलता नहीं कुछ
तोड़ डालो आज पहरे

Monday, April 20, 2015

फिर इक दिन...

मत बोल सच्चाई चुभती है...
मत बोल सच्चाई चुभती है... 


प्यासी चिड़िया जब प्यास भुला कर दाना-दाना चुगती है
भूखे बच्चों का तन ढकने को तिनका-तिनका चुनती है
फिर इक दिन... ये सारे बच्चे फुर्र करके उड़ जाते हैं
मर जाते हैं वो सपने सब, जो आंखों में बुनती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

झूठी रौनक बिकती है, इन अंधियारे बाज़ारों में
जिस्मों के सौदे होते हैं, मक्कारों में, लाचारों में
फिर इक दिन... सारे रिश्ते पल भर में मिट जाते हैं
जब नोटों के चौराहे पर, भूखे की इज्जत बिकती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

टहनी पे गाती गोरैया, पिंजरे में डाली जाती है
पिंजरे में फिर आज़ादी की कीमत समझाई जाती है
फिर इक दिन... गोरैया वो घुट-घुट के मर जाती है
रस्मों की ख़ातिर ये दुनिया कुछ ऐसे पंख कतरती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

मंदिर की दीवारों पर भी फूल चढ़ाए जाते हैं
मस्जिद के वीरानों में भी चांद सजाए जाते हैं
फिर इक दिन... ये मंदिर-मस्जिद खंडहर से बन जाते हैं
जब धर्म के ठेकेदारों की कुर्सी खतरे में पड़ती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

मेहनतकश जब खून बहाकर मिट्टी में सोना बोते हैं
तब क्यों उनके भूखे-प्यासे बच्चे सड़कों पर रोते हैं
फिर इक दिन... अख़बारों में क्यों ऐसी ख़बरें आती हैं
खेत के कुएं के ऊपर, वो किसकी लाश लटकती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

Tuesday, March 31, 2015

ये ‘चॉइस’ का मामला है

दीपिका पादुकोण अपने वीडियो ‘माय चॉइस’ को लेकर एक बार फिर निशाने पर हैं। इस वीडियो में उन्होंने जो संदेश देने की कोशिश की है, उसे
लेकर समाज बंट गया है। इस वीडियो का निर्देशन होमी अदजानिया ने किया है। वीडियो के लिए उन्हें तारीफ मिल रही है, तो कुछ लोग इसकी आलोचना भी कर रहे हैं। इस वीडियो में दीपिका यह कहती हुई दिखती हैं, ‘यह उनका बदन है, तो सोच भी उनकी है और फैसला भी उनका है। कोई औरत किससे शादी करे, किससे यौन संबंध बनाए और किसके बच्चे की मां बनें, यह फैसला उसे ही करना है, किसी दूसरे को नहीं।
एक पक्ष कह रहा है कि वीडियो में सही मुद्दा उठाया गया है, तो दूसरे पक्ष का तर्क है कि यही बातें कोई पुरुष कहे तो?  हमें इसे सही गलत साबित करने के विवाद में न पड़कर इसके मकसद को समझना चाहिए। अगर आप इस बात को समझ पाएं कि आखिर इस वीडियो को बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी, तो आपको जवाब खुद मिल जाएगा। अब जरा सोचिए यह वीडियो पुरुषों को लेकर क्यों नहीं बनाया गया। शायद आप कहेंगे कि पुरुष ज्यादा समझदार हैं और वे ऐसे विषयों का ‘तमाशा’ नहीं बनाना चाहते। लेकिन अब जरा दूसरी तरह से सोचिए। पुरुषों की ‘चॉइस’ पर पाबंदियां ही कहां हैं? बचपन से शुरू हो जाइए। दरअसल, हम इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाते कि हमारा समाज शुरू से ही ‘पुरुष प्रधान’ रहा है। उन्हें कभी अपनी ‘चॉइस’ से समझौता करना ही नहीं पड़ा, जबकि महिलाओं की स्थिति बिल्कुल उलट है। उनकी ‘चॉइस’ हमेशा पुरुषों के अधीन रही है। वो पुरुष चाहे पिता हो, भाई हो, पति हो या कि बॉयफ्रेंड। ये वीडियो इसी छटपटाहट का प्रतीक है। इस बात में कोई संशय नहीं कि वीडियो में जो तर्क दिए गए हैं, वो यदि कोई पुरुष दे, तो हंगामा कई गुना बढ़ जाएगा। शायद सड़कों पर भी उतर आए, लेकिन यह भी सही है कि एक अतिवाद का प्रत्युत्तर दूसरा अतिवाद नहीं हो सकता।
संतुलन ही इसका हल है। मुश्किल यह है कि पुरुष और महिला के बीच का सामाजिक संतुलन आदिकाल से ही इतना बिगड़ चुका है कि इसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही असंतुलित है। एक पुरुष को अपने कपड़े, बाहर आने-जाने, किसी से संबंध बनाने या न बनाने की आजादी महिलाओं की तुलना में कहीं ज्यादा है। जरा सोचिए दुकानों में बैठे-ठाले हम कितनी आसानी से महिलाओं पर कुछ भी टिप्पणी कर देते हैं और किसी को अटपटा तक नहीं लगता। आॅफिस में काम कर रही कलीग के ‘कैरेक्टर’ पर हम कितनी आसानी से अंगुली उठा देते हैं। जब आपने पहली बार जींस पहनी थी, तो घर में बवाल हुआ था क्या? नहीं ही हुआ होगा। सब सामान्य तो है। इसमें बवाल की क्या बात है। और जब आपकी बहन ने पहनी थी तो? आप ही नहीं पूरे परिवार ने भवें तरेर ली होंगी।
दीपिका का यह वीडियो इस बवाल का जवाब है। आप दोस्तों संग पार्टी कर घर देर से आए होंगे। सबको नॉर्मल लगा होगा। और आपकी बहन दफ्तर से भी लेट आई होगी तो बवाल। यह वीडियो इसी बवाल का जवाब है। जवाब नहीं बल्कि गुस्से का फूट पड़ना है। हम सांस्कृतिक पतन के लिए कितनी आसान से पश्चिम को कोस देते हैं। खुद को क्यों नहीं कोसते। पश्चिम में ने ये बंदिशें खत्म की, इसीलिए वहां महिलाएं भारत से ज्यादा सुरक्षित हैं।  दुष्कर्म की दर भी हमसे कई गुना कम है। बात डंडा लेकर कानून थोपने की नहीं, बल्कि ऐसा वातावरण तैयार करने की है, जिसमें सहजता हो। समरसता हो। समानता हो। वरना पुरुषों के एक अतिवाद के जवाब में महिलाओं के अतिवाद के रूप में ऐसे वीडियो आगे भी बनते रहेंगे।

Wednesday, March 25, 2015

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह को नमन

तू असली मिट्टी का जाया
तू ‘फसली’ मिट्टी का जाया
मिट्टी में बंदूकें बोर्इं
मिट्टी में बारूद उगाया। (1)
तू असली...
कच्ची उम्र में छोड़ पतंगें
दुश्मन के संग पेंच लड़ाया
खून सनी मिट्टी जब देखी
मस्तक क्रांति तिलक लगाया। (2)
तू असली...
बात वतन की आन पे आई
अग्निकुंड में हाथ जलाया। (3)
क्रूर हुई दुश्मन की लाठी
खून बहाकर दंभ मिटाया। (4)
तू असली...
अंधे कानूनों का हल्ला
बहरे कानों तक पहुंचाया।
जेल की अंधियारी कोठी से
आज़ादी का दीप जलाया। (5)
तू असली...
जुल्म सहे और लाठी-गोली
भूख सही पर जुबां न खोली।
मक्कारों का शीष झुकाकर
देश में क्रांति यश फैलाया। (6)
तू असली...
डरी सल्तनत, साजिश खेली
किंतु किंचित न घबराया।
आज़ादी का ख़्वाब दिखाकर
मौत को हंसकर गले लगाया। (7)
तू असली...
धन्य हुआ बलिदान तुम्हारा
जिसने नवजीवन दिखलाया।
मातृ भूमि पर जान लुटाकर
इस मिट्टी का कर्ज चुकाया।
तू असली मिट्टी का जाया

(1) ‘फसली’ मिट्टी शब्द का इस्तेमाल पंजाब की उपजाऊ जमीन व वीरों की धरती के लिए किया गया है। बचपन में चाचा अजीत सिंह ने एक दिन भगत सिंह को खेत में लकड़ियां बोते हुए देखा, पूछने पर भगत ने कहा- वो बंदूकें बो रहे हैं। इनसे बड़े होकर अंग्रेजों को मारेंगे।
(2) 16 साल की उम्र में जलियांवाला बाग कांड ने भगत सिंह को बेहद प्रभावित किया। इस घटना के बाद वे जलियांवाला बाग से खून से सनी मिट्टी बोतल में भरकर घर ले आए।
(3) एचआरए से जुड़ने के बाद उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आज़ाद से हुई। उन्होंने भगत सिंह को छोटी उम्र का होने के कारण बड़ी जिम्मेदार देने से इनकार किया। भगत सिंह ने आग में हाथ डालकर अपनी प्रतिबद्धता का परिचय दिया।
(4) साइमन कमीशन के विरोध में लाठीचार्ज के दौरान लाला  लाजपतराय शहीद हो गए। इसका बदला लेने और अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए उन्होंने ब्रिटिश अफसर सांडर्स को मौत के घाट उतार दिया।
(5) पब्लिक सेफ्टी बिल के विरोध में भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली में असेंबली बम फेंक कर विरोध जताया। भगत सिंह का कहना था कि बहरी हो चुकी अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए धमाके की जरूरत है।
(6) जेल में अत्याचारों को सहते हुए उन्होंने कैदियों से मानवीय व्यवहार करने के लिए आवाज उठाई। दो महीने से ज्यादा की भूख हड़ताल के बाद अंग्रेज सरकार झुकी और उनकी शर्तें स्वीकार की। इससे पूरे देश में भगत सिंह की छवि एक सत्याग्रही के रूप में उभरी।
(7) भगतसिंह की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए अंग्रेजों ने बेहद कमजोर केस के बावजूद भगत सिह को फांसी की सजा सुनाई। फांसी की तय से एक दिन पहले ही उन्हें लाहौर जेल में फांसी दे दी गई। सब कुछ जानते हुए भगत सिंह ने अपनी रिहाई की गुजार नहीं लगाई और फांसी का फंदा चूम लिया।

Monday, March 23, 2015

बहारों का मौसम

समान्त/काफ़िया आ
पदांत/रदीफ़ रहा है
मापनी/बहर
2122-2122-2122
आज कोई याद फिर से आ रहा है
इक नशा सा इस फिज़ा में छा रहा है
घुल रहीं हैं शोख़ियां सी तब हवा में
कोई’ झोंका इस तरफ जब आ रहा है
दूर तक फैला हुआ है ये समंदर
इक किनारा पास लेकिन आ रहा है
दिल हुआ है इस कदर पागल दिवाना
भूलकर अपना पराया जा रहा है
रहनुमाओं के नशेमन से गुज़रकर
फिर सड़क पर नींद लेने जा रहा है
है जुबां पे दर्द, होंठों पर हंसी भी
गीत अलहड़ गुनगुनाता जा रहा है
था बहारों सा नजारा जब मिले थे
फिर बहारों का ही’ मौसम आ रहा है

Saturday, March 21, 2015

अमीर खुसरो और गुलज़ार साहब की अनूठी जुगलबंदी


महानतम कवि (शायर), गायक और संगीतकार
अमीर खुसरो की इस रचना ने मुझे मोहित कर दिया।
फारसी और ब्रज भाषा का ऐसा अनूठा संगम कहीं और
देखने को नहीं मिलता। मिथुन चक्रवर्ती और अनीता राज
की फिल्म  'गुलामी' में गुलज़ार साहब के गाने का मुखड़ा इसी
रचना से प्रेरित है।

जिहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफुल,
दुराये नैना बनाये बतियां
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां

शबां-ए-हिजरां दरज चूं जुल्फ
वा रोज-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं
अंधेरी रतियां

यकायक अज दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फरेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां

चो शमा सोजान, चो जर्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां

बहक्क-ए-रोजे, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां

गुलज़ार साहब के गाने का मुखड़ा इस प्रकार है :-

जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।

कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।

ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।

Monday, March 16, 2015

आईना

आईने में अपना चेहरा साफ दिखने लगा है अब
पेशानी के बल और बालों की सफेदी भी
इक धूल का पर्दा था जैसे
अब हट गया है
मिट्टी से लिपटी हुई कुछ बातें
घर की मुंडेर पर टंगी थीं
कल ही उतारी हैं
सर्द हवा काट रही थी
चाल बेढब थी
इक सुकून की चादर तानी है अभी
मद्धम सी रोशनी है उस पार
धुंधला सा दरिया है
जाने की हिम्मत न पूछिए
पतवार थामी है अभी
तरह-तरह की बातें हैं
कुछ अच्छी, कुछ बुरी
इक बात सुनी कल
पांव के नीचे दबे कुछ सूखे पत्ते
सरक गए इधर-उधर
मुखौटे वाले चेहरे देख डर जाता हूं
हर बार धोखा खा जाता हूं इनसे
फिर आईने से दूर भागने लगता हूं
धूल का ये पर्दा और गहरा होता चला जाता है
और गहरा...

Sunday, February 15, 2015

हमसफर

विधा गीतिका
समान्त/काफ़िया अर
पदांत/रदीफ़ लिया
मापनी/बहर
212 212 212 212
याद को आपने कैद सा कर लिया
था हसीं ख़्वाब जो आंख में भर लिया
ख़ाक में मिल गर्इं रौनकें वो सभी
जो भी' था पास वो आपने हर लिया
रूह को मिल सकी न कभी धूप ही
छांव ने भी मगर जिस्म का घर लिया
दिल कहीं था मे'रा, होश था पर कहीं
आंसुओं में दबा दर्द था तर लिया
थी नहीं बारिशों में नमी इन दिनों
आसमां टूटकर जो गिरा मर लिया
राह में जो मिले हमसफर बन गए
आपने क्यों मगर मुंह उधर कर लिया

Friday, February 13, 2015

कसौटी

वक़्त जो छोड़ आए पीछे
उखड़ते कदमों के साथ
लौट नहीं पाएगा
जानता हूं
कितना कुछ सिखाया इसने
अच्छा भी, बुरा भी
कितना अच्छा सीख पाया मैं
अपनी ही कसौटी पर
कितना खरा उतर पाया
और दूसरों की???
शायद, पता नहीं!!

धुंधलका

मेरे हिस्से का सूरज
मेरे हिस्से के तारे
गीली बारिश की ख़ुश्की
कुछ ढहती सी बोझल दीवारें
छू लेता था हाथ लगाकर
पकड़ नहीं पाया लेकिन
अब तो और भी दूर लगता है सब
क्या पकड़ पाऊंगा
जैसे छू लेता था पहले
या खुल जाएगी आंख अचानक
और हाथ लगेगी मायूसी और
इक फटेहाल चद्दर!!

ख़्वाब

कब आओगे रूठे ख़्वाब
कब आओगे झूठे ख़्वाब
आंख उनींदी तुमको ढूंढे
कब आओगे टूटे ख़्वाब
दिल में मेरे चुभता हरदम
जिसने मुझसे लूटे ख़्वाब
गीली पलकें, गीले अरमां
फिर भी सूखे-सूखे ख़्वाब
अश्कों से भी ख़लिश मिटे ना
निकले रूखे-रूखे ख़्वाब
वक़्त का पहिया ऐसे घूमा
कितने पीछे छूटे ख़्वाब
आस जगी जब तुमको देखा
फिर से दिल में फूटे ख़्वाब
कब आओगे???
कब???