Monday, June 15, 2015

नेरूदा तुम कब आओगे?












नेरूदा तुम कब आओगे
मन की गिरहें सुलझाओगे
तुम कहते थे चुप रहना बात बुरी है
लेकिन कुछ लोग खड़े हैं अब भी
लिहाफ ओढ़े सन्नाटों का
इस लिहाफ में आग लगाने
कब आओगे?
अंधे कुएं में कुछ लाशें तैर रहीं हैं
मंदिर-मस्जिद जिनकी आंखों का बैर रहीं हैं
उन आंखों को ख़्वाब दिखाने
कब आओगे?
नीलामघरों में अब भी लगती है जिस्मों की बोली
नोच ले जाते हैँ बाज़ अब भी कंधों का मांस
फब्तियों के डर से अब भी झूल जाती हैं जवानियां
खून से सने पंजों को झुलसाने
कब आओगे?
ख़ुद्दारों के घुटने अब भी झुक जाते हैं लाल बत्तियों के आगे
दफ्तरों में बूढ़े कंधों पर अब भी भारी पड़ता है नोटों का बोझ
खुशामद करने वाले हाथोँ का अब भी लिया जाता है बोसा
तपते फ़र्श पर हथेलियां बिछाने
कब आओगे?
अन्न उगाने वाले अब भी मरते हैं भूखे
अब भी मज़दूरों के बच्चे बिलखते हैं सड़कों पर
नौकरी के लिए अब भी गिड़गिड़ाना पड़ता है
जाहिलों के सामने
अय्याशों का खेल मिटाने
कब आओगे?
कुछ भी तो नहीं बदला नेरूदा
तुम्हारे जाने के बाद
जो लोग जगाए थे तुमने
वो सब मुर्दा हो गए
तुम ज़िंदा हो लेकिन अब भी
ख़ामोश क्यों हो लेकिन?
तुम ही तो कहते थे
चुप रहना बात बुरी है।
पंखों को परवाज़ बनाने
कब आओगे??
नेरूदा तुम कब आओगे?
(पाब्लो नेरूदा की याद में) 

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