सुलगती हथेलियों में
अंजुरी भर ठंडे ख़्वाब
संजो कर रखे थे
इक ठोकर से छिटके
सीढ़ियों से बिखरते हुए जा गिरे
मेरी ड्योढ़ी पर
फिर फटी चप्पल से झांकती
एड़ियों के बीच
मसले गए
गर्म कुरकुरी रेत पर
एड़ियां नहीं छिलीं
लेकिन ताबीर छिल गई
मेरे ख़्वाबों की
अब डर डर के देते हैं दस्तक
मेरी ड्योढ़ी पर...
No comments:
Post a Comment