Wednesday, September 16, 2015

क्या करूं

कहने को ज़िंदा हूं पर, ज़िंदा कहा के क्या करूं
लाश जैसा बोझ हूं, इस बोझ का मैं क्या करूं

है मर रही इन्सानियत, रोज़ मेरे सामने
हूं खड़ा लाचार, आए कोई हाथ थामने

एक बच्चे को बचा पाया नहीं मैं भूख से
देश की रक्षा को एटम बम बना के क्या करूं

ये ख़ून कैसा ख़ून है, जो बोलता न खौलता
चंद सिक्कों के लिए ईमान जिसका डोलता

बुत खड़े चुपचाप जैसे, हैं तमाशा देखते
जी रहे क्यों महल की, इन सीढ़ियों पे रेंगते

बाज़ुओं में ज़ोर कितना है, न हमसे पूछिए
मुल्क़ बिस्मिल का है ये, किस्सा सुना के क्या करूं

क्यों नहीं करता पहल, मैं पहले अपने आप से
कब तलक मरता रहूंगा, क्रोध से संताप से

हैं खड़े दुश्मन, ज़माने भर के मेरी राह में
मैं मगर डरता नहीं, इस ज़िन्दगी की चाह में

है अंधेरा रास्ता, इस बात का भी भय नहीं
रोशनी जो चुभ रही आंखों में उसका क्या करूं

एम एम कलबुर्गी को श्रद्धांजलि

ये बेड़ियां सी क्यों कसती जा रही हैं चारों ओर?
ये इतना पहरा किसलिए है आखिर?
ये मेरे हाथों को कस कर क्यों बांधा जा रहा है?
इतना कस कर कि कलम भी नहीं पकड़ पा रहा हूं।
क्यों अंधेरी कोठरी में डाला जा रहा है मुझे?
क्यों तेज़ाब से सने पत्थर फेंके जा रहे हैं मेरे घर के शीशों पर?
क्यों ये लश्कर बढ़े चले आ रहे हैं मेरी ओर?
आकाओं के इशारे पर क्यों दनदना रहीं हैं गोलियां?
आस्तीन ऊपर कर क्यों चिल्ला रहे हैं गर्म खून से भरे शोहदे?
क्या इसलिए कि तुम्हारी खोखली परंपराओं को ठोकर मार दी है मैंने?
शिथिल से मेरे शरीर को ख़त्म करने के लिए क्यों इतनी ताक़त झोंक रहे हो?
क्या इसलिए कि तुम घबरा गए हो बुरी तरह एक छिहत्तर साल के बूढ़े से?
और ये शिथिल सा शरीर तुम्हें लगने लगा है इक विशाल शिला सा
या की मेरे लिखे शब्दों के कोलाहल से फटने लगे हैं तुम्हारे कान के परदे?
और भरभरा के गिरता हुआ नज़र आ रहा है तुम्हें अपना अस्तित्व
बंदूकों, तोपोँ से लैस होकर भी लाचार क्यों दिख रहे हो मेरे सामने?
क्यों मिटाने पर तुले हो मेरा नामोनिशां?
क्या इसलिए कि जानते हो की परास्त हो जाओगे मेरे शब्दों से?
ढेर हो जाएंगे तुम्हारे सभी आडंबर
इसलिए मेरी ज़ुबान ही छीन लेना चाहते हो मुझसे
कितने नासमझ हो, इतना भी नहीं जानते?
शब्द मिट नहीं सकते कभी
वो तो तैरते रहते हैं हवाओं में क्रांति गीत बनकर
सदा के लिए।

Wednesday, September 2, 2015

सपनों का शहर

कोई इक अनजान नगर हो
ज़ात की ना पहचान मगर हो

काम से सब पहचानें जाएं
नाम की ना जो भूख अगर हो

मंज़िल अलग-अलग हो बेशक
सबकी लेकिन एक डगर हो

मिलकर बांटें खुशियां लेकिन
सबके ग़म की हमें ख़बर हो

दूजे का कोई हक़ ना मारे
थोड़े में भी हमें सबर हो

छल और कपट न हो जीवन में
सीधा सा आसान सफ़र हो

अस्मत सबकी रहे सलामत
ऐसी उजली पाक़ नज़र हो

धूप लगे तो छांव बने जो
बरगद जैसा कोई शजर हो

धर्म के नाम पे ख़ून बहे ना
हंसती गाती राह गुज़र हो

जवां दिलों के ख़्वाब ना टूटें
ऐसी दिलकश शाम-सहर हो

शहर की ख़ातिर गांव न उजड़े
गांव के जैसा कोई शहर हो

उन्मुक्त

छत के सुराख़ से
फर्श पर गिरती रोशनी
पकड़ी है कभी?
घुप्प अंधेरे कमरे में
जैसे चांद से उतर आई हो
कोई सीढ़ी उम्मीद की
कभी कोशिश की है
इस सीढ़ी को पकड़कर
चांद तक पहुंचने की?
उन्मुक्त उड़ जाने की?
बचपन में ताकत नहीं थी
नन्हे हाथों में
जितनी बार भी कोशिश करते
हाथ में कुछ न आता
फर्श पर लेकिन चमकता रहता
एक सफेद गोल चकत्ता
कुछ छोटे छोटे कीट-पतंगे
चढ़ जाते आसानी से उस रोशनी में
और देखते ही देखते आज़ाद घूमते
खुले गगन में
स्लेटों के सुराख़ कितने बड़े लगते थे तब
अब तो बरसों हो गए
उस रोशनी को देखे
भला पक्के मकानों की छत पर भी
सुराख़ होते हैं क्या??