Wednesday, August 26, 2015

बकाया मौत

होश संभाला राहों में थी
मैं अब्बा की बाहों में थी
अब्बा रोज़ बाज़ार घुमाते
खेल-खिलौने खूब दिलाते
बहुत संभाला करते मुझको
ज़ोर उछाला करते मुझको
सांस अटक जाती थी ऐसे
मौत बकाया रह गई जैसे
अब्बा की गोदी में गिरती
सांस मेरी तब जाके फिरती
डर सारा गायब हो जाता
चेहरा फूलों सा खिल जाता
फिर मज़हब की तलवारों ने
मज़हब के ठेकेदारों ने
अब्बा के बाज़ू काट दिए
सरहद में गांव बांट दिए
फिर होश संभाला राहों में थी
मैं अब खूनी बाहों में थी
इक तलवार उठी फिर सट से
हाथ बढ़ा फिर कोई झट से
जान बची फिर जैसे-तैसे
मौत बकाया रह गई जैसे
साल गुज़ारे रोते-रोते
बोझ ग़मों का ढोते-ढोते
बिन सावन के जोबन बीता
जोबन जो आंसू में रीता
फिर होश संभाला राहों में थी
मैं साजन की बाहों में थी
मरती सांसों को जान मिली
मुझको नई पहचान मिली
अपना पिछला आप भुलाकर
नई सुबह से हाथ मिलाकर
आंगन में इक फूल खिलाया
उम्मीदों का दीप जलाया
रहे दर्द भी आते-जाते
दिए बिसारे रिश्ते नाते
फिर लौटी नफरत की आंधी
टूटी जो उम्मीदें बांधी
उखड़ी सांस अटक गई ऐसे
मौत बकाया रह गई जैसे
फिर होश संभाला राहों में थी
मैं बेटे की आहों में थी
मुझको मिट्टी ढूंढ रही थी
पर मैं आंखें मूंद रही थी
कहीं मिली न खोई माटी
मैं इतने हिस्सों में काटी
हारी-थकी गिरी फिर ऐसे
मौत बकाया मिल गई जैसे
मौत बकाया मिल गई जैसे

Thursday, August 13, 2015

ज़िंदगी


है ज़िंदगी से भी लंबी, हर राह ज़िंदगी की
खुशियों की कोई दस्तक, हर आह ज़िंदगी की

मुश्किल नहीं था रहना, ज़िंदा हमेशा लेकिन
है ज़िंदगी की दुश्मन, ये चाह ज़िंदगी की

अंधियारे हैं रास्ते पर, मायूस तुम न होना
बुझती तो कभी जलती, है दाह ज़िंदगी की

जो कामयाब हो तो, ग़मों को याद रखना
पड़ती है बड़ी महंगी, ये ‘वाह’ ज़िंदगी की

नज़रों से गिरा जो भी, हर बार गिरा फिर वो
संभले को नहीं मिलती, फिर थाह ज़िंदगी की

न मौत ही मिलेगी, मर-मर के जो जिये तो
जीने भी नहीं देगी, ये गाह ज़िंदगी की

जीने का मज़ा है तो, दिल खोल के जीने में
है मौत से भी बद्तर, ये डाह ज़िंदगी की


Thursday, August 6, 2015

इश्क़ की जादूगरी

ये है इश्क़ की जादूगरी
जादूगरी है ये इश्क़ की
ये ख़ुदा भी है, ये दुआ भी है
ये घटा भी है, ये फिज़ा भी है
ये जुनूं भी है और जां भी है
ये वफ़ा भी है, ये जफ़ा भी है

ये है एक मंजिल पाक़ सी
ये है एक मुट्ठी राख सी
फैले ये जब, कर दे भसम
ये है एक जलती आग सी

ये है इश्क़ की जादूगरी...

शोलों के हैं क़तरे यहां
हैं मौत के खतरे यहां
ना दिन है ना रातें यहां
बेखौफ़ सब बातें यहां

बस धूप है, ना छांव है
मिट्टी में जलते पांव हैं
इस इश्क़ में जीता वही
जिसका चला हर दांव है

ये है इश्क़ की जादूगरी...

रूहों का इक बाज़ार है
जिंदा है पर लाचार है
इक दर्द है, आज़ार है
लुटता हुआ गुलज़ार है

देखो जो ख़्वाब हसीन है
महफिल बहुत रंगीन है
उतरे नशा जब प्यार का
किस्सा बहुत ग़मग़ीन है

ये है इश्क़ की जादूगरी...

मिल जाए तो, खोना नहीं
गुम जाए तो, रोना नहीं
हो बोझ तो ढोना नहीं
और बेवफ़ा होना नहीं

फिर भी कभी जो राह में
सिमटी हुई सी आह में
यादों का झोंका ले उड़े
जलना नहीं उस गाह में

ये है इश्क़ की जादूगरी...

ये इक अजब सा सरूर है
सिर पे चढ़े तो फितूर है
अल्हड़ भी है, मग़रूर है
इस उम्र का ही क़सूर है

रुकता नहीं, रोके कभी
मुड़ता नहीं, मोड़े कभी
हिस्सों में जो बंट जाए तो
जुड़ता नहीं, जोड़े कभी

ये है इश्क़ की जादूगरी...

इसमें बड़ी हैं नज़ाकतें
मासूमियत ओ शराफतें
कुछ मदभरी सी रफाकतें
कुछ शोख़िया व अदावतें

चेहरा कोई भा जाए तो
आंखों में गर छा जाए तो
सुनता नहीं फिर दिल कभी
इक बार ये आ जाए तो

ये है इश्क़ की जादूगरी...