Saturday, December 19, 2015

झुग्गियां

212 212 212 212
इक शमां जल रही इस कदर शाम से
तीरगी (1) आ रही है नज़र शाम से

झोंपड़ों में सभी आज खामोश हैं
भूख का शोर है हर तरफ शाम से

चिमनियां बस्तियों की हैं ठंडी पड़ीं
जम गया है कहीं ये धुआं शाम से

जो उड़े लौट कर आएंगे अब नहीं
चुप तभी है खड़ा ये शजर (2) शाम से

नींद ना आएगी आज भी रात भर
दोपहर कर रही साजिशें शाम से

आंख पथरा गई देखते-देखते
कोई' आया नहीं है इधर शाम से

बाद मुद्दत हुआ चांद से सामना
बेज़ुबां सा खड़ा है मगर शाम से

हो अंधेरा बहुत तो खिले धूप भी
बात ये कह रही है सहर (3) शाम से
 

1. तीरगी: अंधेरा 2. शजर: पेड़ 3. सहर: सुबह


 


  

Wednesday, December 16, 2015

सजदा

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला

टूट के मैं बिखर ही न जाऊं
नेकियों का सिला दे ऐ मौला

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला...

रूह को मेरी तू पाक़ कर दे
नेमतों से मेरी झोली भर दे
तेरे सजदे में झुकता रहूं मैं
हर गुनाह तू मेरा माफ़  कर दे

मेरी आंखों में बस, तेरा ही नूर हो
हो कुछ ऐसा नशा, हर कोई चूर हो
जाम ऐसा पिला दे ऐ मौला ...

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला...

मुझको जन्नत की परवाह नहीं है
तेरे कदमों में जन्नत मेरी है
तेरे दर से उठूंगा न खाली
मेरे दिल की तमन्ना यही है

भूख तेरे दरस की है मिटती नहीं
भूख मर जाए और दर्द भी हो नहीं
दवा ऐसी खिला दे ऐ मौला...

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला...

फ़ना हो जाऊं हस्ती में तेरी
झूम जाऊं मैं मस्ती में तेरी
मुझमें मैं न रहे यार बाकी
तू ही तू हो इबादत में मेरी

तेरी रहमत बड़ी, तेरी बरक़त बड़ी
तू है रहबर मेरा, मेरी हसरत बड़ी
तेरी चादर दिल दे ऐ मौला ...

मुझको मुझसे मिला दे ऐ मौला
मेरी बिगड़ी बना दे ऐ मौला...

टूट के मैं बिखर ही न जाऊं
कर्मों का कुछ सिला दे ऐ मौला

अटल

नदी की दो धारों सा चल कर
गिरते-पड़ते संभल-संभल कर
सागर मंथन जैसे छल कर
निर्मल, निर्झर, निश्चल कल-कल
सतत, निरंतर बह सकते हो...

सूरज की किरणों से ऊपर
चांद की गहराई को छूकर
देह जलाती निर्मम लू पर
जलती, तपती, बंजर भू पर
शीतल झोंकों सा बह सकते हो...

लक्ष्य न कोई हो जीवन में
जोगी भटक रहा हो वन में
ज्वाला भड़क रही हो तन में
बात दबी हो कोई मन में
खुले  गगन में कह सकते हो...

सीमाओं ने गर बांटा हो
अंदर ही अंदर काटा हो
रिश्तों ने तलछट छांटा हो
और अपनों ने भी डांटा हो
दिल के अंदर रह सकते हो...

संकट ने हो हर पल घेरा
पल-पल में सदियों का फेरा
उस पर जगपरिहास हो तेरा
पर निर्णय अगर अटल हो तेरा
कड़वी बातें सह सकते हो 

Thursday, December 10, 2015

घर

जब नए मकान बनते हैं
तो पुराने घर टूट जाते हैं
साथ ही टूट जाती है यादों की कड़ी,
वो कड़ी जो पिरो के रखती है घर को,
चार दीवारों को घर नहीं कहते
चंद खिड़कियों का नाम भी घर नहीं होता
कंक्रीट नहीं, रिश्तों की दीवारें होती हैं घरों में
और संवाद के लिए होती हैं खिड़कियां
फर्श पर चौंधियाती रोशनी का नाम भी घर नहीं होता
बिन रोशनी के भी सब साफ़ दिखता है घरों में
दीवारों पर लटकी महंगी तस्वीरों का नाम भी घर नहीं होता
कुछ खुशियों के रंग होते हैं,
जिनसे बनती है घर की मुकम्मल तस्वीर
जब नए मकान बनते हैं तो
दीवारें खड़ी हो जाती हैं घरों के बीच
कमरों की तरह बंट जाते हैं लोग
लेकिन दादी अम्मा का पुराना कमरा किसी के हिस्से नहीं आता
वो तो ढह जाता है पुराने घर के साथ ही
जब नए मकान बनते हैं तो
छत से सटे रोशनदान बड़ी-बड़ी खिड़कियों में बदल जाते हैं
लेकिन फिर भी अंधेरा नहीं मिटता मकानों का
सिर्फ चिकने फर्श का नाम ही घर नहीं होता
गोबर की लिपाई वाले कमरे में मजबूत रहती है पैरों की पकड़
चिकने फर्श पर तो अक्सर फिसल जाते हैं सब,
कमरे में खुदी अंगीठी में होती है अजब सी गर्माहट
मूंगफली का स्वाद भी अलग होता है ड्राइंग रूम में सजे ड्राई फ्रूट से
सिर्फ नरम गद्दों का नाम ही घर नहीं होता
रस्सी से बुनी चारपाई भी काफी होती है थकान मिटने के लिए
काफी होती है धूप में बिछाकर गप्पें लड़ाने के लिए
काफी होती है खट्टे का ज़ायका लेने के लिए
काफी होती है स्वेटर पर नया फूल बनाने के लिए
जब नए मकान बनते हैं तो कुचली जाती हैं आंगन की क्यारियां
जमीन से जुड़े फूल गमलों में सज जाते हैं
लेकिन तरसते रहते हैं हमेशा ज़मीन के लिए
सिर्फ एलईडी के शोर का नाम ही घर नहीं होता
बच्चों की मस्ती और बहनों की ठिठोली भी काफी होती है
चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए
कतरा-कतरा बिखरे लोगों का नाम घर नहीं होता
इसीलिए मकानों से कहीं बेहतर होता है घर
चंद दीवारों का नाम ही घर नहीं होता।

गीत

जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे

होंठ चुपचाप रहें फिर भी ज़िक्र करते हैं
ये वो शोले हैं जो पानी में सुलग उठते हैं
मैंने शोलों की ही तासीर बदल रखी है
ये सुलगते नहीं पानी में, भड़कते क्यों हैं...

जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे

है जो तस्वीर ख़यालों में तेरी यादों की
मैंने तस्वीर वो सिरहाने छिपा रखी थी
मैंने सोचा था कि मिट जाएंगे कुछ रंग यहां
कैसे ये रंग हैं कि और चमकते क्यों हैं...

जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे
 
बिखरे रिश्तों का कोई पुल था जो अब टूट गया
कोई भी राह नहीं अब तो नज़र आती है
कोई इक डोर तो है दरमियां जोड़े हमको
जब भी खिंचती है तो दम घुटता हमारा क्यों है...

जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे

इसी उम्मीद पे ज़िंदा हैं फ़साने अपने
वो फ़साने जो कभी हो नहीं पाए पूरे
इन फ़सानो की फक़त इतनी गुज़ारिश सुन लो
न अधूरा इन्हें रहने दो ये अधूरे क्यों हैं...
         
जाने क्या आस लगा रखी है दिल ने तुमसे
धड़कनों में तेरी आवाज़ सी आती है मुझे

ठंडी बस्तियों की आग

ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है
अब ये सुलगेंगी नहीं, भड़क उठेंगी
राख कर देंगी शहर की गंदगी को
और खुद भी हो जाएंगी राख
ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है...
शहर बच नहीं पाएगा इन शोलों से
क्योंकि शहर ने ही जलाए हैं
इन बस्तियों के सपने
खुद आबाद होने के लिए
अमलतास के जंगल
बिजली की तारों में झुलस गए
और धुआं तक न निकला
लेकिन आज चिंगारी उठी है एक      
ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है...
ये जो शोर सा चुभ रहा है कानों में
ये शोर नहीं है, चीखें हैँ
उन मासूमों की
जिनके हाथ कुचल दिए थे तुमने
और छोड़ दिया था भीख मांगने के लिए
अब ये हाथ और मजबूत हो गए हैं
ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है...
यातना देने वाले याचक बन गए हैं
गला घोंटने वाले हाथ प्रार्थना कर रहे हैं
भय दिखने वाली आंखें डरी हुई हैं
रौंदने वाले पांव लड़खड़ा रहे हैं
ठंडी बस्तियों में आज किसी ने आग भर दी है...

चांद

काट कर रखा हो जैसे चांद कोई फर्श पर
घुल रहा हो डली-डली
पिघल रहा हो कतरा-कतरा
ठंडे पहाड़ों से उतर कर
झील में गोते लगा रहा हो जैसे
छींटे उड़ा रहा हो जैसे
तारे बेचैन हैं, हैरान हैं
चांद की ये मस्ती देखकर
कह रहे हों जैसे
अब घर लौट आओ
रात  बहुत हो गई है...