Friday, August 5, 2016

सहर

यूं तो हर रोज़ सहर होती है
यूं तो हर रोज़ सहर होती है
आशाएं बंधती हैं, टूटती हैं
कांधे पर हल रखकर
खेत में पांव रखती हैं उम्मीदें
आकाश से निकलती है एक टुकड़ा धूप
और तभी पानी बन बरस पड़ती हैं बलाएं
यूं तो हर रोज़ सहर होती है...
ज़िंदगी चलती है कुछ कदम
गिरती है, फिर संभलती है
कभी थक के बैठ जाती है
जवाब नहीं मिलते, लेकिन सवाल पूछती है
सदाएं आती हैं माज़ी से, लेकिन टकरा के लौट जाती हैं
यूं तो हर रोज़ सहर होती है...
नींद खुल जाती है अल सुबह
आंखें ढूंढती हैं कुछ, अंगुलियां टटोलती हैं
अनाज के खाली डिब्बे को खंगालती हैं
और फिर फैक्टरियों की घंटियां बज उठती हैं
मशीनों की आवाज़ में दब जाती हैं विरोध की आवाज़ें
यूं तो हर रोज़ सहर होती है...