Friday, September 7, 2018

सिख कौम के सच्चे सिपाही... सारागढ़ी के सूरमा


सिखों का इतिहास यूं तो अनके वीरगाथाओं से भरा पड़ा है, लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज कुछ घटनाएं ऐसी भी हैं, जिन्हें याद कर आज भी रोम-रोम रोमांचित हो उठता है। 121 साल पहले हुआ ऐतिहासिक सारागढ़ी का युद्ध भी ऐसी ही एक घटना है, जिसका जिक्र भर भी रोंगटे खड़े कर देता है...
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नितिन उपमन्यु, जालंधर
12 सितंबर, 1897 का दिन। सुबह के नौ बजे थे। नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर पर स्थित ब्रिटिश चौकी सारागढ़ी में कोई खास हलचल नहीं थी। 36वीं सिख रेजिमेंट के 21 जवान यहां बेफिक्री से मुस्तैद थे। हवलदार ईशर सिंह इनका नेतृत्व कर रहे थे। हल्की धूप के बावजूद खैबर दर्रे की ठंडी हवा बदन में सिरहन पैदा कर रही थी कि अचानक जमीन जोर से कांपने लगी। चौकी में खलबली मच गई। कंपन इतना जोरदार था कि चौकी की मजबूत दीवारों की मिट्टी तक गिरने लगी। ईशर सिंह बेचैन हो उठे। उनकी बेचैनी देखते ही जवानों ने खतरे को भांप लिया। ईशर सिंह ने चौकी की सबसे ऊंची बुर्जी पर चढ़कर सामने नजर दौड़ाई, तो हक्के-बक्के रह गए। सामने से हजारों की तादाद में अफगानों की फौज चली आ रही थी। करीब 10 हजार अफगान हथियारों से लैस धूल उड़ाते हुए चौकी पर कब्जे के लिए बढ़ रहे थे। घोड़ों के कदमों की टाप दूर से ही साफ सुनाई दे रही थी। ईशर सिंह ने एक बार लंबी सांस ली और छलांग मारकर अपने जवानों के बीच पहुंच गए।

उनके एक आदेश पर जवान बंदूकों के साथ मोर्चे पर डट गए। असलहा एक जगह जमा कर लिया गया। सिपाही गुरमुख सिंह ने पीछे की पहाड़ी पर बने लोखार्ट किले में ब्रिटिश सेना के कर्नल हॉफ्टन को सिग्नल भेजा। 'दुश्मनों ने हमला कर दिया है। हमें मदद की जरूरत है।'  कर्नल हॉफ्टन ने जो जवाब दिया उससे साफ हो गया कि अब स्थिति बेहद खतरनाक होने वाली है। उन्होंने कहा, 'इतनी जल्दी मदद नहीं भेजी जा सकती। आप चौकी खाली कर दें।' ईशर सिंह ने यह आदेश मानने से इन्कार कर दिया और अफगानों की फौज का मुकाबला करने का निर्णय किया। सवा लाख से एक लड़ाने वाली सिख कौम के ये सच्चे सिपाही 10 हजार की अफगानी फौज से भिड़ गए। आदेश साफ था- मरने तक चौकी पर कब्जा नहीं होने देंगे।

अफगान फौज ने गोलीबारी शुरू कर दी। गोलियों की बौछार से चौकी की मजबूत दीवार के पत्थर चटखने लगे। ईशर सिंह ने भी जवाबी हमले का आदेश का दिया। दोनों तरफ से अंधाधुंध गोलियां चलने लगीं। चौकी पर यूं तो भरपूर असलहा था, लेकिन 10 हजार की फौज के सामने यह नाकाफी था। लिहाजा जवानों ने चौकी की ऊपरी मंजिल से फायरिंग शुरू की। जवानों के अचूक निशाने ने देखते ही देखते दर्जनों अफगानों को ढेर कर दिया। लाल सिंह और भगवान सिंह ने चुन-चुन कर अफगानों के सिर पर निशाना लगाना शुरू किया। दुश्मन फौज को उन्होंने चौकी के मुख्य द्वार तक नहीं पहुंचने दिया। पश्तूनों ने भी हमला तेज कर दिया और पहली गोली भगवान सिंह को लगी। वे पीछे जा गिरे। लाल सिंह व जीवा सिंह उन्हें खींच कर पोस्ट के अंदर वाले हिस्से में ले गए, लेकिन उन्होंने दम तोड़ दिया। सिखों के हौसले से पश्तूनों के कैंप में हड़कंप मच गया। उन्हें लगा कि अंदर बड़ी सेना मौजूद है।


उन्होंने चौकी की दीवार को तोडऩे के दो असफल प्रयास किए। इतने में लोखार्ट किले से कर्नल हॉफ्टन का सिग्नल मिला- 'पश्तूनों की फौज 14 हजार के आसपास है। चौकी खाली करने में ही समझदारी है।' ईशर सिंह नहीं माने और उधर अफगान फौज ने चौकी की एक दीवार गिरा दी। फायरिंग और तेज हुई और देखते ही देखते अफगान फौज में लाशों के ढेर लग गए। आखिर तीसरे प्रयास में दुश्मन फौज ने मुख्यद्वार की दीवार को तोड़ दिया। अब मुकाबला आमने-सामने का था। पश्तून फौज के कमांडर ने आत्मसमर्पण का संदेश भेजा, लेकिन जवाब वही मिला, जिसकी उम्मीद थी। यानी मर जाएंगे, लेकिन चौकी नहीं छोड़ेंगे। अफगान फौज अंदर प्रवेश कर गई। बंदूकों की जगह तलवारों और कृपाणों ने ले ली।

हवलदार ईशर सिंह दुश्मनों पर झपट पड़े और अकेले ही 20 से अधिक पठानों को ढेर कर दिया। सिपाही गुरमुख सिंह ने शहीद हुए साथी की बंदूक भी उठा ली और दो बंदूकों से अफगानी फौज पर टूट पड़े। उन्होंने 'जो बोले सो निहाल' की ललकार से दुश्मनों को अंदर तक हिला दिया। लड़ते-लड़ते सुबह से रात हो गई। सिख जवानों ने आखिरी सांस तक डट कर मुकाबला किया। एक-एक करके 36वीं सिख रेजिमेंट के सभी जवान शहीद हो गए। सिपाही गुरमुख सिंह शहीद होने वाले आखिरी जवान थे।

अफगान फौज ने चौकी पर कब्जा कर लिया, लेकिन उन्हें जो नुकसान पहुंचा था, वह इससे पहले कभी नहीं हुआ। पश्तून कमांडर ने खुद इस बात को स्वीकार किया कि 21 सिख जवानों ने उनके करीब 600 अफगान फौजियों को मार डाला। कुछ इतिहासकार इस संख्या को 1400 तक बताते हैं। इसके बाद अफगान फौज किला गुलिस्तां की ओर मुड़ी, लेकिन तब तक ब्रिटिश सेना वहां पहुंच गई थी। लिहाजा किले को बचा लिया गया। अफगानियों को भारी नुकसान सहना पड़ा, वे किलों पर कब्जा नहीं कर पाए। सारागढ़ी चौकी पर भी 2 दिन बाद ब्रिटिश सेना का कब्जा हो गया।

मरणोपरांत ऑर्डर ऑफ मेरिट
21 जवानों ने अदम्य साहस का जो परिचय दिया, उसकी मिसाल इतिहास में कम ही मिलती है। जब यह खबर यूरोप पंहुची तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गई। ब्रिटेन की संसद में सभी ने खड़े होकर इन 21 वीरों की बहादुरी को सलाम किया। सभी को मरणोपरांत इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट दिया गया, जो परमवीर चक्र के बराबर था। इस लड़ाई को विश्‍व की 6 महानतम लड़ाइयों में शामिल किया गया है।

इसलिए खास थी चौकी सारागढ़ी
सारागढ़ी चौकी (अब खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान में) की अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि यह अफगानिस्तान की सरहद पर ब्रिटिश साम्राज्य का आखिरी मजबूत गढ़ थी। इसकी एक तरफ लोखार्ट किला और दूसरी तरफ किला गुलिस्तां में ब्रिटिश सेना का कब्जा था। ऊंचाई पर होने के कारण सारागढ़ी चौकी से इन दोनों किलों पर आसानी से नजर रखी जा सकती थी। अफगान फौज लोखार्ट और गुलिस्तां किले पर कब्जा करना चाहती थी। इन किलों को महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था। बाद में अंग्रेजों ने इस पर कब्जा कर लिया। ब्रिटिश सेना स्थानीय कबायलियों की बगावत को भांप न सकी। कबायलियों ने आफरीदी व अफगानों ने हाथ मिला लिया। इन किलों पर कब्जे के लिए कई हमले हुए, लेकिन सिख वीरों ने उन्हें हर बार विफल कर दिया।

युद्ध के बाद बने गुरुद्वारे
सारागढ़ी के युद्ध में शहीद हुए सिखों की बहादुरी का सम्मान करने के लिए तीन गुरुद्वारों का निर्माण किया गया। एक गुरुद्वारे का निर्माण सारागढ़ी में ही किया गया। दूसरा पंजाब के फिरोजपुर और तीसरा अमृतसर में बनाया गया। इनका स्मृति प्रतीक 14 फरवरी 1902 को बनकर तैयार हुआ था। गुरुद्वारा सारागढ़ी में सभी शहीदों के नाम सुनहरे शब्दों से लिखे गए हैं।
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सिख वीर योद्धाओं के नाम
1. हवलदार ईशर सिंह
2. नायक लाल सिंह
3. नायक चंदा सिंह
4. लांस नायक सुंदर सिंह
5. लांस नायक राम सिंह
6. सिपाही उत्तम सिंह
7. सिपाही साहिब सिंह
8. सिपाही हीरा सिंह
9. सिपाही दया
10. सिपाही जीवन सिंह
11. सिपाही भोला सिंह
12. सिपाही नारायण सिंह
13. सिपाही गुरमुख सिंह
14. सिपाही जीवन सिंह
15. सिपाही गुरमुख सिंह
16. सिपाही राम सिंह
17. सिपाही भगवान सिंह
18. सिपाही भगवान सिंह
19. सिपाही बूटा सिंह
20. सिपाही जीवा सिंह
21. सिपाही नंद सिंह