Sunday, February 11, 2018

अज्ञात

कोई तो है जो एकदम अलग है भीड़ से
जो हर बात पे झुकता नहीं
शहंशाहों की शान में कसीदे पढ़ने के दौर में
जो भिड़ जाता है भीड़ से

कोई तो है जो परेशान है नफरतों के इस बाज़ार में
जो अंदर तक झुलस जाता है बस्तियां जलाने पर
विरोध की आवाज़ों को कुचलने के दौर में
जो लड़ जाता है भीड़ से

कोई तो है जिसके अंदर के ख़्वाब मरे नहीं हैं अब तक
जो मुसलसल बुनता है सुनहरे सपनों का कल
जहर बुझे नश्तर चलाने के इस अंधे दौर में
जो मोहब्बत की बातें करता है फूलों से

कोई तो है जो बिना डरे बेबाक बात करता है
जो परीलोक नहीं जमीन की बात करता है
झूठ, फरेब और जुमलों के दौर में
जो सामने आईना रख कर बात करता है

कोई तो है जो अंदर ही अंदर कचोटता है
जो आंखें खोलने को मजबूर करता है
चिल्लाने और चुप कराने के दौर में
जो मज़लूम की आवाज़ बन जाता है

कोई तो है जो अंतर्मन को झकझोरता है
जो चैन से सोने नहीं देता
कौन है ये? ये  अज्ञात है...
जो पल रहा है हमारे अंदर सदियों से...