Tuesday, July 28, 2015

कमाल के कलाम

कलाम थे ही कमाल। 83 साल के नौजवान। इतनी ऊर्जा, इतनी लगन, इतनी सादगी और इतना समर्पण। हर किसी में ये गुण संभव नहीं। हाथों में गीता-कुरान व बाइबल और जुबान पर फिजिक्स। कर्म से विशुद्ध वैज्ञानिक और जीवन में आध्यात्मिक, संगीत प्रेमी, हंसमुख व मिलनसार। बच्चों और युवाओं के हीरो। कभी अभावों का रोना नहीं रोया। कोई शिकायत नहीं की। निरंतर कड़ी मेहनत के साथ काम करते रहे। सपने देखे भी, दिखाए भी और साकार भी किए। सौ फीसदी खरा सोना थे कलाम। किसी एक धर्म के नहीं, किसी एक जाति के नहीं। संपूर्ण भारतीय। पूरे राष्ट्र का गौरव। जिससे बात करते, वही कायल हो जाता। तभी शायद निधन के समय तक उनका किसी से विरोध नहीं हुआ। सबने सदा खुली बाहों से उनका स्वागत किया और कलाम ने भी सबको घुट के गले लगाया। कहते थे-‘मैं शिक्षक हूं और शिक्षक के रूप में ही पहचाना जाना चाहता हूं।’ सीखने और सिखाने को हमेशा लालायित।
      कलाम पक्के कर्मयोगी थे। उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था-‘मेरी मृत्यु पर छुट्टी मत करना, अगर मुझसे प्यार करते हो, तो उस दिन ज्यादा काम करना।’ खुद भी डटकर काम करते और दूसरों को भी प्रेरणा देते। जिंदगी के अंतिम पलों में भी शिलांग के आईआईएम में पढ़ाते हुए दुनिया को अलविदा कहा। आराम में वक्त जाया नहीं करते। गाड़ी में ही सोते। शिलांग आईआईएम जाते समय भी इस बात को लेकर चिंतित थे कि संसद नहीं चल रही। अपने सहयोगी से कहा कि आईआईएम में स्टूडेंट्स से इस पर सुझाव मांगूंगा। देश को 2020 तक विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देखने वाले कलाम हर माह एक लाख युवाओं व बच्चों से मिलते थे। युवाओं से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं। लगाव भी बहुत था। यही वजह है कि सोशल मीडिया पर उनके सबसे ज्यादा फॉलोअर युवा व बच्चे ही थे।
       बेहद गरीब परिवार में जन्मे कलाम ने अखबार बांटने से अपनी पहली कमाई की। आज वही शख्स देश-दुनिया की अखबारों में छाया हुआ है। कलाम की शख्सियत ही ऐसी थी कि कोई उनके जादू से बच न सका। वर्ष 2005 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने कलाम से तीस मिनट की मुलाकात के बाद कहा था, ‘धन्यवाद राष्ट्रपति महोदय। भारत भाग्यशाली है कि उसके पास आप जैसा एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति है।’ कलाम की ईमानदारी, सादगी, दयालुता, कर्मठता, समर्पण व त्याग के इतने किस्से हैं कि  बखान करने में एक साल कम पड़ जाए। यही बात कलाम को सबसे अलग करती है। देश को परमाणु शक्ति बनाने वाले ‘मिसाइल मैन’ के लिए आज देश की हर आंख दिल से नम है। कलाम को सलाम!!

Friday, July 24, 2015

वक़्त

वक़्त की सान पर पल-पल घिसते लम्हे
और तेज़ हुए चले जा रहे हैं
काटते चले जा रहे हैं यादों के दरख़्त
ये दरख़्त जब गिरते हैं पहाड़ी से
तो साथ ले उखड़ते हैं बहुत सी जड़ें भी
खूब तबाही मचाते हैं
छोटी-छोटी खुशियों जैसी झाड़ियां
कुचली जाती हैं इनके तले
कच्ची कमर के पौधे टूट जाते हैं
बाहों की तरह सहारा देने को फैलीं शाखें
चटख जाती हैं, रिश्तों की मानिंद
आंसुओं के सैलाब की तरह
बह निकलती है भुरभुरी मिट्टी
फिर ढलते सूरज की किरणों को
मिलता है नया रस्ता
दरख़्त गिरने से खाली हुई जगह पर
बिखरने लगती है रोशनी
धीरे-धीरे आदत सी पड़ जाती है
अंधेरे जंगल को रोशनी की
घास भर देती है पहाड़ी के ज़ख्मों को
शाखें फिर हरी हो उठती हैं
टूटे दरख़्त के तने से फिर फूट पड़ती है
कोई हरी टहनी, बिना किसी शिकायत के
सब पहले की तरह चलने लगता है
जैसे कुछ हुआ ही नहीं यहां...

Tuesday, July 21, 2015

निमंत्रण

मिट्टी-गारे की दीवारें मुझसे बातें करती हैं
पूछती हैं मुझसे
खिड़की के छज्जे पर जो दीया रखा था तुमने
उसका तेल कबका सूख चुका है
लाल डोरी की बाती राख हो चुकी है
रातें और स्याह हो गईं हैं
दीये से चिपके तेल को चाट रहीं हैं चींटियां
लेकिन नीचे अब भी मौजूद है
थोड़ी सी चिकनाई
फिर भी नहीं आओगे? दीया जलाने?
बस यूं ही पूछ लिया, क्योंकि...
कभी-कभी सिर टकरा जाता है छज्जे से
यहां से गुजरते मुसाफिरों का...।

Monday, July 13, 2015

विभाजन, सांप्रदायिकता और विस्थापन का दर्द बयां करता ‘तमस’

सांप्रदायिकता तर्क शक्ति को खत्म कर देती है। या यूं कहें कि अंधा बना देती है। इस पर विभाजन की पीड़ा और विस्थापन की मार भी शामिल हो जाए, तो दर्द और बढ़ जाता है। इसी दर्द को बयां करता है भीष्म साहनी का कालजयी उपन्यास ‘तमस’। तमस का अर्थ है ‘अंधकार’। एक ऐसा अंधकार जिससे बाहर निकलने के संघर्ष में किरदार पल-पल घायल होते हैं, मरते हैं। यह उपन्यास 1973 में प्रकाशित हुआ, लेकिन कहानी 1947 की है। भीष्म साहनी को इस कृति के लिए 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘तमस’ की कहानी में अप्रैल 1947 के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है।

तमस की कहानी सीमा से सटे एक छोटे से शहर की की परिस्थितियों के बारे में है। कहानी की शुरुआत में ही मुख्य किरदार सफाई कर्मचारी नत्थू एक क्षेत्रीय मुस्लिम राजनेता की चाल का शिकार हो जाता है। नेता उसे कुछ पैसे देकर धोखे से एक सुअर को मरवा देता है। उसे बताया जाता है कि ऐसा मांस के लिए किया जा रहा है, लेकिन अगली सुबह मृत सुअर एक स्थानीय मस्जिद की सीढ़ियों पर पड़ा मिलता है। इससे शहर में तनाव की स्थिति बन जाती है।  राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े कुछ सामाजिक कार्यकर्ता किसी तरह हालात को शांत बनाए रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन धीरे-धीरे पूरा शहर नफरत की आग में झुलसने लगता है। हिंदू और मुस्लिमों में फसाद बढ़ने के बाद शुरू होती है सबसे बड़ी चुनौती। पलायन। नत्थू मन ही मन में इस सारे फसाद के लिए खुद को दोषी मानता है। हालांकि, उससे धोखे से यह काम करवाया गया था। यह कहानी हमारे देश की दशा का सही चित्रण करती है की  कैसे, भोले-भले लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेल कर सियासत से जुड़े लोग फायदा उठाते हैं। पलायन की पीड़ी को जिस तरह से भीष्म साहनी से चित्रित किया है, उसे हर कोई खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है। छोटे से शहर से आर्मी के राहत शिविर तक की नत्थू की यात्रा बेहद चुनौतियों से भरी है। गर्भवती पत्नी साथ होने के कारण नत्थू को कई समझौते करने पड़ते हैं। वहीं, बरसों से जमे-जमाए घर-बार और पुश्तैनी संपत्ति को छोड़ कर जाते लोगों के दर्द को मार्किक घटनाओं और परिस्थितियों के माध्यम से उपन्यास में बखूबी उभारा गया है। धर्म की राजनीति और धर्म के दर्शन को जिस अंदाज में पेश किया गया है, उससे यह उपन्यास और भी संजीदा बन पड़ा है।

उपन्यास में साहनी ने पूरे सौ वर्ष के कालखंड को उकेर दिया है। दासता की बेड़ियों में जकड़े हिंदुस्तान में कैसे आजादी के सपने जन्म लेते हैं और कैसे पलभर में बिखर जाते हैं। इसका सुंदर चित्रण किया गया है। आजादी के मायने हर किसी के लिए अलग हैं। इन मायनों की तलाश में उपन्यास का नायक अंत तक संघर्ष करता नजर आता है। राजनीति किस तरह सांप्रदायिकता का पोषण करती है, इसके जीवंत उदाहरण उपन्यास में देखने को मिलते हैं। वहीं, जहरीली संस्कृति के खिलाफ लड़ने के लिए समाज खड़ा तो होता है, लेकिन सियासत के क्रूर पंजे उसे कुचल देते हैं। भीष्म साहनी ने सांप्रदायिकता की पाशविकता का सूक्ष्म विश्लेषण कर उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर रख दिया है, जिनसे आम इनसान के हाथ तबाही के अलावा कुछ भी नहीं रह जाता। विभाजन की चुनौतियों से निपटने के लिए आम इनसान को किस कद्र अपने हाल पर छोड़ दिया गया, इस पर भी गहरा कटाक्ष किया गया है। सांप्रदायिकता और
राजनीति के दुष्चक्र से लड़ते-लड़ते उपन्यास का नायक सांप्रदायिकता का ही शिकार हो जाता है।

भाषा और परिवेश की बात करें तो हिंदी, उर्दू, पंजाबी और मिश्रित शब्दावली के उपयोग से भाषायी अनुशासन कथ्य को प्रभावी बनाता है। ग्रामीण परिवेश और आम आदमी के जीवन-यापन को भी खूबसूरत शब्दों से गूंथा गया है। तमस सिर्फ एक उपन्यास ही नहीं, बल्कि एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब हम आज तक तलाश कर रहे हैं। ऐसा सबक है, जिससे हमें सतत् सीखने की जरूरत है। समाज पर इस घटना के दुष्प्रभावों का ऐसा बहुआयामी चित्रण बहुत कम देखने को मिलता है।