Monday, July 13, 2015

विभाजन, सांप्रदायिकता और विस्थापन का दर्द बयां करता ‘तमस’

सांप्रदायिकता तर्क शक्ति को खत्म कर देती है। या यूं कहें कि अंधा बना देती है। इस पर विभाजन की पीड़ा और विस्थापन की मार भी शामिल हो जाए, तो दर्द और बढ़ जाता है। इसी दर्द को बयां करता है भीष्म साहनी का कालजयी उपन्यास ‘तमस’। तमस का अर्थ है ‘अंधकार’। एक ऐसा अंधकार जिससे बाहर निकलने के संघर्ष में किरदार पल-पल घायल होते हैं, मरते हैं। यह उपन्यास 1973 में प्रकाशित हुआ, लेकिन कहानी 1947 की है। भीष्म साहनी को इस कृति के लिए 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘तमस’ की कहानी में अप्रैल 1947 के समय में पंजाब के जिले को परिवेश के रूप में लिया गया है।

तमस की कहानी सीमा से सटे एक छोटे से शहर की की परिस्थितियों के बारे में है। कहानी की शुरुआत में ही मुख्य किरदार सफाई कर्मचारी नत्थू एक क्षेत्रीय मुस्लिम राजनेता की चाल का शिकार हो जाता है। नेता उसे कुछ पैसे देकर धोखे से एक सुअर को मरवा देता है। उसे बताया जाता है कि ऐसा मांस के लिए किया जा रहा है, लेकिन अगली सुबह मृत सुअर एक स्थानीय मस्जिद की सीढ़ियों पर पड़ा मिलता है। इससे शहर में तनाव की स्थिति बन जाती है।  राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े कुछ सामाजिक कार्यकर्ता किसी तरह हालात को शांत बनाए रखने की कोशिश करते हैं, लेकिन धीरे-धीरे पूरा शहर नफरत की आग में झुलसने लगता है। हिंदू और मुस्लिमों में फसाद बढ़ने के बाद शुरू होती है सबसे बड़ी चुनौती। पलायन। नत्थू मन ही मन में इस सारे फसाद के लिए खुद को दोषी मानता है। हालांकि, उससे धोखे से यह काम करवाया गया था। यह कहानी हमारे देश की दशा का सही चित्रण करती है की  कैसे, भोले-भले लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेल कर सियासत से जुड़े लोग फायदा उठाते हैं। पलायन की पीड़ी को जिस तरह से भीष्म साहनी से चित्रित किया है, उसे हर कोई खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है। छोटे से शहर से आर्मी के राहत शिविर तक की नत्थू की यात्रा बेहद चुनौतियों से भरी है। गर्भवती पत्नी साथ होने के कारण नत्थू को कई समझौते करने पड़ते हैं। वहीं, बरसों से जमे-जमाए घर-बार और पुश्तैनी संपत्ति को छोड़ कर जाते लोगों के दर्द को मार्किक घटनाओं और परिस्थितियों के माध्यम से उपन्यास में बखूबी उभारा गया है। धर्म की राजनीति और धर्म के दर्शन को जिस अंदाज में पेश किया गया है, उससे यह उपन्यास और भी संजीदा बन पड़ा है।

उपन्यास में साहनी ने पूरे सौ वर्ष के कालखंड को उकेर दिया है। दासता की बेड़ियों में जकड़े हिंदुस्तान में कैसे आजादी के सपने जन्म लेते हैं और कैसे पलभर में बिखर जाते हैं। इसका सुंदर चित्रण किया गया है। आजादी के मायने हर किसी के लिए अलग हैं। इन मायनों की तलाश में उपन्यास का नायक अंत तक संघर्ष करता नजर आता है। राजनीति किस तरह सांप्रदायिकता का पोषण करती है, इसके जीवंत उदाहरण उपन्यास में देखने को मिलते हैं। वहीं, जहरीली संस्कृति के खिलाफ लड़ने के लिए समाज खड़ा तो होता है, लेकिन सियासत के क्रूर पंजे उसे कुचल देते हैं। भीष्म साहनी ने सांप्रदायिकता की पाशविकता का सूक्ष्म विश्लेषण कर उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर रख दिया है, जिनसे आम इनसान के हाथ तबाही के अलावा कुछ भी नहीं रह जाता। विभाजन की चुनौतियों से निपटने के लिए आम इनसान को किस कद्र अपने हाल पर छोड़ दिया गया, इस पर भी गहरा कटाक्ष किया गया है। सांप्रदायिकता और
राजनीति के दुष्चक्र से लड़ते-लड़ते उपन्यास का नायक सांप्रदायिकता का ही शिकार हो जाता है।

भाषा और परिवेश की बात करें तो हिंदी, उर्दू, पंजाबी और मिश्रित शब्दावली के उपयोग से भाषायी अनुशासन कथ्य को प्रभावी बनाता है। ग्रामीण परिवेश और आम आदमी के जीवन-यापन को भी खूबसूरत शब्दों से गूंथा गया है। तमस सिर्फ एक उपन्यास ही नहीं, बल्कि एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब हम आज तक तलाश कर रहे हैं। ऐसा सबक है, जिससे हमें सतत् सीखने की जरूरत है। समाज पर इस घटना के दुष्प्रभावों का ऐसा बहुआयामी चित्रण बहुत कम देखने को मिलता है।

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