वक़्त की सान पर पल-पल घिसते लम्हे
और तेज़ हुए चले जा रहे हैं
काटते चले जा रहे हैं यादों के दरख़्त
ये दरख़्त जब गिरते हैं पहाड़ी से
तो साथ ले उखड़ते हैं बहुत सी जड़ें भी
खूब तबाही मचाते हैं
छोटी-छोटी खुशियों जैसी झाड़ियां
कुचली जाती हैं इनके तले
कच्ची कमर के पौधे टूट जाते हैं
बाहों की तरह सहारा देने को फैलीं शाखें
चटख जाती हैं, रिश्तों की मानिंद
आंसुओं के सैलाब की तरह
बह निकलती है भुरभुरी मिट्टी
फिर ढलते सूरज की किरणों को
मिलता है नया रस्ता
दरख़्त गिरने से खाली हुई जगह पर
बिखरने लगती है रोशनी
धीरे-धीरे आदत सी पड़ जाती है
अंधेरे जंगल को रोशनी की
घास भर देती है पहाड़ी के ज़ख्मों को
शाखें फिर हरी हो उठती हैं
टूटे दरख़्त के तने से फिर फूट पड़ती है
कोई हरी टहनी, बिना किसी शिकायत के
सब पहले की तरह चलने लगता है
जैसे कुछ हुआ ही नहीं यहां...
Friday, July 24, 2015
वक़्त
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