Tuesday, July 21, 2015

निमंत्रण

मिट्टी-गारे की दीवारें मुझसे बातें करती हैं
पूछती हैं मुझसे
खिड़की के छज्जे पर जो दीया रखा था तुमने
उसका तेल कबका सूख चुका है
लाल डोरी की बाती राख हो चुकी है
रातें और स्याह हो गईं हैं
दीये से चिपके तेल को चाट रहीं हैं चींटियां
लेकिन नीचे अब भी मौजूद है
थोड़ी सी चिकनाई
फिर भी नहीं आओगे? दीया जलाने?
बस यूं ही पूछ लिया, क्योंकि...
कभी-कभी सिर टकरा जाता है छज्जे से
यहां से गुजरते मुसाफिरों का...।

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