Saturday, November 29, 2014

खलील जिब्रान होना आसान क्यों नहीं है ??

कलम क्रांति के इस पुजारी को मेरा सलाम 


मेजबान

 'कभी हमारे घर को भी पवित्र करो।' करूणा से भीगे स्वर में भेड़िये ने भोली-भाली भेड़ से कहा।

'मैं जरूर आती बशर्ते तुम्हारे घर का मतलब तुम्हारा पेट न होता।' भेड़ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया।
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2
तीन चींटियाँ

एक व्यक्ति धूप में गहरी नींद में सो रहा था । तीन चीटियाँ उसकी नाक पर आकर इकट्ठी हुईं । तीनों ने अपने-अपने कबीले की रिवायत के अनुसार एक दूसरे का अभिवादन किया और फिर खड़ी होकर बातचीत करने लगीं।

पहली चीटीं ने कहा, ह्लमैंने इन पहाड़ों और मैदानों से अधिक बंजर जगह और कोई नहीं देखी । मैं सारा दिन यहाँ अन्न ढ़ूँढ़ती रही, किन्तु मुझे एक दाना तक नहीं मिला।

दूसरी चीटीं ने कहा, मुझे भी कुछ नहीं मिला, हालांकि मैंने यहाँ का चप्पा-चप्पा छान मारा है । मुझे लगता है कि यही वह जगह है, जिसके बारे में लोग कहते हैं कि एक कोमल, खिसकती जमीन है जहाँ कुछ नहीं पैदा होता।

तब तीसरी चीटीं ने अपना सिर उठाया और कहा, मेरे मित्रो ! इस समय हम सबसे बड़ी चींटी की नाक पर बैठे हैं, जिसका शरीर इतना बड़ा है कि हम उसे पूरा देख तक नहीं सकते । इसकी छाया इतनी विस्तृत है कि हम उसका अनुमान नहीं लगा सकते । इसकी आवाज इतनी उँची है कि हमारे कान के पर्दे फट जाऐं । वह सर्वव्यापी है।ह्व

जब तीसरी चीटीं ने यह बात कही, तो बाकी दोनों चीटियाँ एक-दूसरे को देखकर जोर से हँसने लगीं ।

उसी समय वह व्यक्ति नींद में हिला । उसने हाथ उठाकर उठाकर अपनी नाक को खुजलाया और तीनों चींटियाँ पिस गईं।
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3
बिजली की कौंध

एक तूफानी रात में, एक ईसाई पादरी अपने गिरजाघर में था । तभी एक गैर-ईसाई स्त्री उसके पास आई और कहने लगी, मैं ईसाई नहीं हूँ । क्या मुझे नर्क की अग्नि से मुक्ति मिल सकती है?ह

पादरी ने उस स्त्री के ध्य़ान से देखा और य़ह कहते हुए उत्तर दिया, नहीं, ईसाई धर्म के अनुसार मुक्ति केवल उन लोगों को ही मिलती है जिनके अनुसार शरीर और आत्मा का शुद्धिकरण करके दीक्षा दी गई है।ह

जैसे ही पादरी ने ये शब्द कहे, उसी समय गिरजाघर पर आकाश से तेज गर्जना के साथ बिजली गिरी और उस गिरजाघर में आग लग गई।

शहर के लोग भागते हुए आए और उस स्त्री को बचा लिया, किंतु पादरी को आग ने अपना ग्रास बना लिया।
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4
मोती

एक बार, एक सीप ने अपने पास पड़ी हुई दूसरी सीप से कहा, मुझे अंदर ही अंदर अत्यधिक पीड़ा हो रही है। इसने मुझे चारों ओर से घेर रखा है और मैं बहुत कष्ट में हूँ।



दूसरी सीप ने अंहकार भरे स्वर में कहा, शुक्र है. भगवान का और इस समुद्र का कि मेरे अंदर ऐसी कोई पीड़ा नहीं है । मैं अंदर और बाहर सब तरह से स्वस्थ और संपूर्ण हूँ।

उसी समय वहाँ से एक केकड़ा गुजर रहा था । उसने इन दोनों सीपों की बातचीत सुनकर उस सीप से, जो अंदर और बाहर से स्वस्थ और संपूर्ण थी, कहा, हाँ, तुम स्वस्थ और संपूर्ण हो; किन्तु तुम्हारी पड़ोसन जो पीड़ा सह रही है वह एक नायाब मोती है।
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5
दूसरी भाषा

मुझे पैदा हुए अभी तीन ही दिन हुए थे और मैं रेशमी झूले में पड़ा अपने आसपास के संसार को बड़ी अचरज भरी निगाहों से देख रहा था । तभी मेरी माँ ने आया से पूछा, कैसा है मेरा बच्चा?

आया ने उत्तर दिया, वह खूब मजे में है । मैं उसे अब तक तीन बार दूध पिला चुकी हूँ। मैंने इतना खुशदिल बच्चा आज तक नहीं देखा।

मुझे उसकी बात पर बहुत गुस्सा आया और मैं चिल्लाने लगा, माँ यह सच नहीं कह रही । मेरा बिस्तर बहुत सख़्त है और, जो दूध इसने मुझे पिलाया है वह बहुत ही कड़वा था और इसके स्तनों से भयंकर दुर्गंध आ रही है । मैं बहुत दुखी हूँ।

परंतु न तो मेरी माँ को ही मेरी बात समझ में आई और न ही उस आया को ; क्योंकि मैं जिस भाषा में बात कर रहा था वह तो उस दुनिया की भाषा थी जिस दुनिया से मैं आया था।

और फिर जब मैं इक्कीस दिन का हुआ और मेरा नामकरण किया गया, तो पादरी ने मेरी माँ से कहा, आपको तो बहुत खुश होना चाहिए; क्योंकि आपके बेटे का तो जन्म ही एक ईसाई के रूप में हुआ है।

मैं इस बात पर बहुत आश्चर्यचकित हुआ । मैंने उस पादरी से कहा, तब तो स्वर्ग में तुम्हारी माँ को बहुत दुखी होना चाहिए ; क्योंकि तुम्हारा जन्म एक ईसाई के रुप में नहीं हुआ था।

किंतु पादरी भी मेरी भाषा नहीं समझ सका।

फिर सात साल के बाद एक ज्योतिषी ने मुझे देखकर मेरी माँ को बताया, तुम्हारा पुत्र एक राजनेता बनेगा और लोगों का नेतृत्व करेगा।

परंतु मैं चिल्ला उठा, भविष्यवाणी गलत है; क्योंकि मैं तो एक संगीतकार बनूंगा । कुछ और नहीं, केवल एक संगीतकार।

किंतु मेरी उम्र में किसी ने मेरी बात को गंभीरता से नहीं लिया । मुझे इस बात पर बहुत हैरानी हुई ।

तैंतीस वर्ष बाद मेरी माँ, मेरी आया और वह पादरी सबका स्वर्गवास हो चुका है , (ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे), किंतु वह ज्योतिषी अभी जीवित है । कल मैं उस ज्योतिषी से मंदिर के द्वार पर मिला । जब हम बातचीत कर रहे थे, तो उसने कहा, मैं शुरू से ही जानता था कि तुम एक महान संगीतकार बनोगे । मैंने तुम्हारे बचपन में ही यह भविष्य वाणी कर दी थी । तुम्हारी माँ को भी तुम्हारे भविष्य के बारे में उसी समय बता दिया था । और मैंने उसकी बात का विश्वास कर लिया क्योंकि अब तक तो मैं स्वयं भी उस दुनिया की भाषा भूल था।

( गद्यकोश से साभार)

Sunday, November 23, 2014

वो बात नहीं लौटेगी अब

जो राह चुनी न मैंने, वो राह नहीं लौटेगी अब
जो बीत गया है सावन, बरसात नहीं लौटेगी अब

खिलने के जब मौसम आए, फूल फिज़ा में मुरझाए
अब चाहे बसंत बुला लो, बहार नहीं लौटेगी अब

दिल से थे आज़ाद मगर, पिंजरों में थे अपने घर
पिंजरे अब वो तोड़ भी डालो, परवाज़ नहीं लौटेगी अब

हाथों से यूं फिसला पल, नहीं मिला फिर पिछला कल
वक्त के पहिए मोड़ भी डालो, रफ्तार नहीं लौटेगी अब

मिट्टी में थे बोए सपने, जिनकी ख़ातिर खोए अपने
जितनी गहरी नींद सुला लो, वो रात नहीं लौटेगी अब

यारों संग जब महफिल होती, बात सनम संगदिल की होती
महलों में अब जाम पिला लो, वो बात नहीं लौटेगी अब

Saturday, November 1, 2014

क्या नास्तिक होना ‘फैशन’ बन गया है?


ऐसा लग रहा है कि खुद को नास्तिक घोषित करना ‘फैशन’ बन गया है। ठीक उसी तरह, जैसे गांधी को गाली निकालना। मुश्किल चीजों की सबसे मुश्किल बात यही होती है कि वो मुश्किल से समझ में आती हैं। धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे या गांधी जैसे कद वाले इनसान के प्रति राय बनाने से पहले भी यही मुश्किल आड़े आती है। इसके लिए गहरे तुलनात्मक अध्ययन और गहरी समझ की जरूरत होती है। इसलिए, इस झमेले में क्यों पड़ें? खुद को नास्तिक ही घोषित कर दें। जान बची। और दुनिया के सामने आपनी ‘तथाकथित सेक्युलर’ छवि बनाने का सर्टिफिकेट भी खुद ही जारी कर दें।  इससे पहले कि आप मुझे एक ‘रंग विशेष की विचारधार से ग्रसित व्यक्ति’ समझने लगें, मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं धर्म या किसी व्यक्ति के प्रति अपनी राय बनाने से पहले उसके अध्ययन और वैज्ञानिक पहलू को समझने का समर्थक हूं। और शायद होना भी यही चाहिए। भगत सिंह ने खुद को नास्तिक घोषित करने से पहले गहरा अध्ययन किया। जेल में रहकर सभी धर्मों का दर्शन पढ़ा। तब कहीं जाकर उन्होंने अपने नास्तिक होने का तर्क रखा। इसके लिए उन्होंने मौखिक या फेसबुकिया प्रचार नहीं किया, बल्कि किताब ही लिख डाली- ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’। लेकिन इतनी मेहनत कौन करे। हर कोई भगत सिंह जितना समर्पित नहीं हो सकता। वे नास्तिक जरूर थे, लेकिन देश के लिए उनकी आस्था इतनी अटूट थी कि अपने लिए खुद फांसी का फंदा चुना। लेकिन एक ऐसा भी वर्ग है, जो बिना मेहनत किए खुद को नास्तिक घोषित कर अपने आप को भगत सिंह के समकक्ष खड़ा करना चाहता है। यह नास्तिकवाद नहीं हिपोक्रेसी है। भगत सिंह ने भी अपनी किताब में लिखा है कि उन्हें एशियाई दर्शन पढ़ने का वक्त नहीं मिला। मतलब वे अब भी संतुष्ट नहीं थे। संतुष्ट होना भी नहीं चाहिए। तथ्य को तर्क से साबित करना ही आपको विचारवान सिद्ध करता है, न कि तथ्य से पीछा छुड़ाना।

स्वामी विवेकानंद पुरोहितवाद, धार्मिक आडंबरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। अद्वैत मत के समर्थक व प्रचारक थे। इसके बावजूद वे मूर्ति पूजा के खिलाफ नहीं थे। एकदम विपरीत सोच लगती है। अद्वैत मत को मानने वाला मूर्ति पूजा का विरोधी न हो यह हजम नहीं होता, लेकिन विवेकानंद जानते थे कि निराकार व निर्गुण ईश्वर की उपासना हर किसी के लिए संभव नहीं है। और इस पर जब अज्ञानता का पर्दा हो तो बात और भी जटिल हो जाती है। इसलिए सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपासना के लिए उन्होंने मूर्ति पूजा की गुंजाइश दी। वैसे भी प्रतीक उपासना आदिकाल से होती रही है। हम प्रकृति को विभिन्न रूपों में पूजते रहे हैं और आज भी पूज रहे हैं। अज्ञान के कारण शायद यह समझ में आना मुश्किल होगा कि वर्षा कैसे होती है, इसका वैज्ञानिक चक्र क्या है, इसलिए यह मान लिया गया कि वर्षा का भी कोई देवता है और उपासना होने लगी। इसी तरह सूरज, चांद व औषधीय पौधे पूजक हो गए। यही प्रतीक उपासना आगे चल कर मूर्ति पूजा में बदल गई। फिर इसमें आडंबर भी जुड़ता गया और देवता मूर्ति के आकार व मूर्ति की धातु से पहचाने जाने लगे। हिंदी फिल्म ‘ओह माय गॉड’ का एक डायलॉग यहां सटीक बैठता है कि जिस शिरडी सार्इं ने अपनी सारी जिंदगी फकीरी और लोकसेवा में गुजार दी, आज उन्हें सोने-चांदी के मुकुट व रेशम के कपड़े पहनाए जाते हैं। ईश्वर को यह रूप हमने दिया है। इसके लिए कृपया किसी धर्म विशेष को न कोसें। हमारी गलतियों और आडंबर की  वजह के किसी धर्म के दर्शन की छवि बिगड़ रही हो, तो उसके लिए हम जिम्मेदार हैं, धर्म नहीं। नास्तिक होना बुरा नहीं है, लेकिन नास्तिक होकर ईश्वर को ही खारिज कर देना भी सही नहीं है। ईश्वर में आस्था न होना और ईश्वर को ही खारिज कर देना दो अलग बातें हैं। जिसकी ईश्वर  में आस्था ही नहीं है, उसे ईश्वर को खारिज करने का अधिकार नहीं है। ठीक उसी तरह, जैसे आप यदि फुटबॉल नहीं खेलते, लेकिन कहें कि यह तो खेल ही बकवास है, तो आपको यह कहने का हक किसने दिया। आप यूं कह सकते हैं कि फुटबॉल मुझे पसंद नहीं। हां, माराडोना यदि कहें, तो सोचा जा सकता है।  लेकिन आप पहले फुटबॉल खेल कर देखिए। उसके नियमों को जानिए। उसके रोमांच व जुनून को महसूस कीजिए, फिर कहिए। तो सब सुनेंगे।
 
भगवान की मूर्ति पूजा उसके आकार, धातु या चमक-दमक के पैमाने से बाहर होकर की जाए, तो बुरी भी नहीं है। बशर्ते यह विशुद्ध आस्था हो, भगवान की चमचागीरी नहीं। लेकिन, एक वर्ग यदि इसे अंधविश्वास बताकर एक धर्म विशेष के दर्शन को ही खारिज कर दे तो यह असहनीय है। यह वही वर्ग है, जो ईश्वर की मूर्ति पूजा को तो अंधविश्वास बताता है, लेकिन व्यक्ति पूजा के लिए चौक-चौराहों पर इनसानों की हजारों मूर्तियां भी बनवाता है। दुनिया में तानाशाहों और नेताओं की मूर्तियों की संख्या लाखों में है। धर्म में पाखंड, आडंबर व कर्मकांड दर्शन का हिस्सा नहीं है। दोनों अलग हैं, इन्हें अलग ही रहने दें। दर्शन तो सभी धर्मों का एक ही है। मानवता। ‘मेरा धर्म श्रेष्ठ या तेरा धर्म नीच’ इस सोच से बाहर निकल कर यदि सबसे अच्छा ग्रहण करेंगे, तो नास्तिक होने का सर्टिफिकेट जारी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।  शेष रही बात ईश्वर के होने या न होने की, तो यह बहुत बड़ा विषय है। मेरा कोई राय देना हास्यास्पद ही लगेगा। आप ईश्वर को मत मानिए, कोई बात नहीं, लेकिन इतना तो है कि किसी ‘सुपर नेचुरल पावर’ को तो मानते ही होंगे। भले ही वो हाइड्रोन कोलाइडर प्रयोग से सामने आया गॉड पार्टिकल ‘हिग्स बोसोन’ ही क्यों न हो। वैज्ञानिक सोच का यही फायदा है कि आप प्रयोग से तर्क को साबित होता देख सकते हैं। यह दर्शन में भी संभव है, लेकिन उसके लिए जरूरी है- अध्ययन, संयम और घृणा व अहम का त्याग।
: नितिन उपमन्यु