मेरे सारे सपने
तुम ही तो हो
क्यों जीना हुआ हराम राम तेरे शहर में
सड़कों पे कत्लेआम राम तेरे शहर में
हैं मुट्ठियां कसी हुईं जुबां पे तल्खियां
ना दुआ ना सलाम राम तेरे शहर में
तुलसी, कबीर, ख़ुसरो ख़ामोश हो गए
क्यों पढ़ते नहीं कलाम राम तेरे शहर में
क्यों तेरे घर की ख़ातिर तेरा ही घर गिराया
क्यों मारी गई अवाम राम तेरे शहर में
'रत्ना' ने रटा राम और संत हो गए
वो नाम क्यों बदनाम राम तेरे शहर में
जो अब है तेरी हालत पहले कभी न थी
आंखों में ऐसी नफ़रत पहले कभी न थी
मजमों में होती अक़सर बातें तेरी मगर
महफ़िल में ऐसी ख़ल्वत पहले कभी न थी
हमसाया होके चलते थे हम कदम-कदम
ये फासलों की फ़ितरत पहले कभी न थी
सूरत में तुम्हारी थी जादूगरी मगर
आंखों में झूठी उल्फ़त पहले कभी न थी
दूरी सी इक थी पहले भी दरमियां मगर
रिश्तों में झूठी क़ुरबत पहले कभी न थी
पतझड़ में जो आया है मौसम बहार का
मेहरबां तो ये क़ुदरत पहले कभी न थी
मस्जिद में मंदिरों में बांटा किए ख़ुदा
मज़हब में ऐसी नीयत पहले कभी न थी
फैले हैं देखो शोले क्यों हर तरफ यहां
घर फूंकने की फुरसत पहले कभी न थी
श्रद्धा से झुके शांत सिर
अपलक निहारती नम आंखें
जड़ हो चुकी चंचल जीह्वा
एक दिव्य पुरुष के अवसान पर
किंतु हिलोरें लेता क्षुद्र मन
अट्टहास करती निष्ठुर आत्मा
दृश्य जैसे अचानक बदल गया
शांत सिर में कौंध गए अनगिनत विचार
नम आंखों में दिखी सिंहासन की चमक
जड़ हुई जिह्वा से फूटे भेड़ियों के स्वर
स्थिर शरीर ने दिखाया बाहुबल
जयघोष के साथ हुआ राज्याभिषेक
"श्रद्धासुमन" राजा पर न्योछावर हुए
श्रद्धांजलि सभा संपन्न हुई।।
तेरा कोई पश्चाताप नहीं
लाशों के ढेर पर खड़ा करबद्ध
क्षमा मांग रहा रोती रूहों से
क्योंकि अब नींद नहीं आती
तेरा कोई अधिकार नहीं
तेरा कोई पश्चाताप नहीं
तेरे अट्टहास के सामने
मंद पड़ गया हर रुदन
मंद पड़ गई हर चीत्कार
भुजाओं की ताक़त के नशे में चूर
अब चूर चूर हुआ तेरा गुरूर
तेरा कोई सत्कार नहीं
तेरा कोई पश्चाताप नहीं
हुई मुद्दत कि आंखों ने वो बरसातें नहीं देखीं
भीगी सुबहें नहीं देखीं, गीली रातें नहीं देखीं
किताबों के नशे से चूर हो जाती थीं जब आंखें
ऐसी नींदें नहीं देखीं, ऐसी रातें नहीं देखीं
आंगन में बहा करती कभी जो नाव पत्तों की
ऐसा बचपन नहीं देखा, ऐसी बातें नहीं देखीं
पढ़ाई के बहाने से सजा करती थी जो महफ़िल
ऐसे मजमे नहीं देखे, मुलाकातें नहीं देखीं
मुझको मेरा गुनाह बता
हर सुबह खौफ़ भरी
हर रात भयानक स्याह
दिन की रोशनी में तपिश
शाम बदरंग, धूसर जैसी
रिश्तों का क़त्ल रोज़ देखता
अपनी नन्हीं सी आंखों से
ज़िंदगी कैद थी जैसे हाथों में
कंचों से भरी मुट्ठी भींच लेता
और वो बिखर जाते लम्हों की तरह
समेटने की कोशिश में अक्सर
छिल जाती कुहनियां
अब भी हैं गहरे निशां
मुझको मेरा गुनाह बता
गहरे सायों में चलता छिप छिप कर
तुझसे मांगा करता क़तरा क़तरा धूप
मां की रुआंसी आंखों में
सुनाई देते क्रूर प्रहसन
पिता के निश्छल समर्पण पर
वो बिखेरते कुटिल मुस्कान
बेदम पिंडलियों पर बढ़ता बोझ
और रास्ते पर भट्ठी की गर्म राख
झुलसे हुए पांवों में
अब भी हैं निशां
मुझको मेरा गुनाह बता।
तुझसे ऐ ज़िन्दगी सवाल क्यों है
हर बात पे इतना बवाल क्यों है
ज़िन्दगी को खोकर फिर पाई ज़िन्दगी
फिर ज़िन्दगी पे इतना मलाल क्यों है
मुकाम शोहरतों के हसीं बहुत हैं यारो
पर ज़िन्दगी में इतना ज़वाल क्यों है
आंखों पे कफ़न होगा, मिट्टी में जिस्म होगा
फिर चेहरे पे रंग-ए-जमाल क्यों है
मोहब्बतों की दुनिया कितनी दिलकशी है
नफरतों का इसमें ख़्याल क्यों है
सहरा-ओ-समंदर में इक जैसी तिश्नगी है
ये ज़िन्दगी भी इतनी कमाल क्यों है
झुलसी हुई यादों का अनमोल खज़ाना है
बाज़ार-ए-मोहब्बत में लुटने से बचाना है
बर्बाद-ए-गुलिस्तां में लौटेंगी बहारें भी
आबाद उसे करने को फूल खिलाना है
दरिया-ए-मोहब्बत में अश्कों की रवानी है
इक पल को जो रोना है, इक पल को हंसाना है
जिस पैरहन के सदके तुमको गुमां बहुत है
उस पैरहन को इक दिन यूं छोड़ के जाना है
महलों में सो रहे हैं मौकापरस्त सारे
मेहनतकशों का कोई न ठौर ठिकाना है
नफरत भरी है दिल में, आंखों में आग सी है
चेहरे की मुस्कराहट बस एक बहाना है
ये खुशामदी की बातें ये दौर-ए-बुतपरस्ती
इंसान की फ़ितरत से वाकिफ़ ये ज़माना है