Saturday, December 1, 2018

ख़ल्वत

जो अब है तेरी हालत पहले कभी न थी
आंखों में ऐसी नफ़रत पहले कभी न थी

मजमों में होती अक़सर बातें तेरी मगर
महफ़िल में ऐसी ख़ल्वत पहले कभी न थी

हमसाया होके चलते थे हम कदम-कदम
ये फासलों की फ़ितरत पहले कभी न थी

सूरत में तुम्हारी थी जादूगरी मगर
आंखों में झूठी उल्फ़त पहले कभी न थी

दूरी सी इक थी पहले भी दरमियां मगर
रिश्तों में झूठी क़ुरबत पहले कभी न थी

पतझड़ में जो आया है मौसम बहार का
मेहरबां तो ये क़ुदरत पहले कभी न थी

मस्जिद में मंदिरों में बांटा किए ख़ुदा
मज़हब में ऐसी नीयत पहले कभी न थी

फैले हैं देखो शोले क्यों हर तरफ यहां
घर फूंकने की फुरसत पहले कभी न थी

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