जो अब है तेरी हालत पहले कभी न थी
आंखों में ऐसी नफ़रत पहले कभी न थी
मजमों में होती अक़सर बातें तेरी मगर
महफ़िल में ऐसी ख़ल्वत पहले कभी न थी
हमसाया होके चलते थे हम कदम-कदम
ये फासलों की फ़ितरत पहले कभी न थी
सूरत में तुम्हारी थी जादूगरी मगर
आंखों में झूठी उल्फ़त पहले कभी न थी
दूरी सी इक थी पहले भी दरमियां मगर
रिश्तों में झूठी क़ुरबत पहले कभी न थी
पतझड़ में जो आया है मौसम बहार का
मेहरबां तो ये क़ुदरत पहले कभी न थी
मस्जिद में मंदिरों में बांटा किए ख़ुदा
मज़हब में ऐसी नीयत पहले कभी न थी
फैले हैं देखो शोले क्यों हर तरफ यहां
घर फूंकने की फुरसत पहले कभी न थी
ग़ज़ब
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत खूब सर। हर शेर शानदार
ReplyDeleteवाह.
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