अंधियारे की ओट में छिपकर
आज उजाला पूछ रहा है
रात ये इतनी काली क्यों है
क्यों गहरे हैं इतने साए
सन्नाटों में खौफ़ भरा क्यों
ख़ामोशी बेचैन सी क्यों है
सांसों में क्यों भरी घुटन सी
आंखों में है अजब जलन सी
रंग-बिरंगी इन सड़कों पर
मरघट सी वीरानी क्यों है
क्यों गुम है महफ़िल की रौनक
क्यों साज़ों पर पहरा है
पायल-घुंघरू की खन-खन में
सुरों की हेरा-फेरी क्यों है
भवें तनीं हैं, तना है सीना
ज़ुबां पे तल्ख़ी, नज़र में नफ़रत
मुट्ठी कसी-कसी सी क्यों है
घनी हताशा सबको घेरे
आशा पर किस्मत के फ़ेरे
पाप-पुण्य और झूठ-सत्य में
झूठ का पलड़ा भारी क्यों है
मंदिर-मस्जिद और गिरजों में
दरगाहों और गुरु घरों में
शांत प्रार्थना पूछ रही है
जहन में इतनी वहशत क्यों है
इन पश्नों के अंतर्तम में
रौशन है उम्मीद का सूरज
फ़ेर समय का बहुत प्रबल है
अंधियारे की ओट से उगकर
इक दिन पूछेगा उजियारा
झूठ पे तू शर्मिंदा क्यों है
झूठ पे तू शर्मिंदा क्यों है...
Monday, September 13, 2021
उम्मीद
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