Saturday, September 23, 2017

छद्म सेक्युलरवाद बनाम छद्म राष्ट्रवाद



वर्ष 1976 से पहले भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'सेक्युलर' शब्द नहीं था। इसे आपातकाल के दौरान जोड़ा गया। इसका यह अर्थ नहीं है कि इससे पहले भारत में सेक्युलर अर्थात धर्मनिरपेक्ष विचारधारा नहीं थी और इसे अचानक रोप दिया गया। भारत की मूल संस्कृति में ही यह शब्द रचा-बसा था। हिंदू बहुल आबादी वाले राष्ट्र के बावजूद भारत ने हमेशा से विभिन्न धर्मों व संस्कृतियों को अपनाया है। विश्वभर में भारत अपनी बहुलतावादी संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी, सिख, जैन व बौद्ध धर्म को मानने वाले यहां वर्षों से एक साथ रह रहे हैं। अंग्रेजी शासनकाल में भी तमाम प्रयासों के बावजूद यह बहुलतावाद खंडित नहीं हो सका। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देश ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ जो सांस्कृतिक एकजुटता दिखाई वह अपने आप में एक मिसाल है। आजादी से कुछ वर्ष पहले इस एकजुटता में दरार पडऩी शुरू हुई और दो-राष्ट्र सिद्धांत के आगे भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को कायम रखना चुनौतीपूर्ण बनता गया। 1946 के कलकत्ता दंगों के रूप में यह चिंगारी भड़क उठी। पाकिस्तान बनाने को उतावले हुए जिन्ना 'डायरेक्ट एक्शन' पर उतर आए। 5 हजार से ज्यादा हिंदू, मुस्लिम और सिख मारे गए। गांधी के उपवास के कारण यह आंकड़ा कहीं ज्यादा बढऩे से बच गया, लेकिन उन पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगा दिया गया। संभवत: यही वो वक्त था, जब धर्मनिरपेक्षता के विचार की हत्या कर दी गई। इस शब्द का इस्तेमाल करने वालों को राष्ट्रविरोधी करार दिया जाने लगा। विभाजन के समर्थकों ने धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले लोगों को नफरत की नजर से देखना शुरू कर दिया। उन्हें दो-राष्ट्र सिद्धांत के बाधक के रूप में पेश किया जाने लगा। विभाजन से पहले जिन विचारों को देश की आवाज के रूप में सुना जाता था, उन्हें खेमों में बांट दिया गया। विभाजन को रोकने के बहुत प्रयास किए गए, लेकिन आखिरकार चरमपंथी सोच हावी हो गई और भारत-पाक बंटवारे के रूप में इसकी परिणति पूरी दुनिया के सामने आ गई। विभाजन नि:संदेह एक ऐतिहासिक भूल थी, जिसने सीमाओं से पहले भारत की बहुलतावादी छवि और संस्कृति को खंडित कर दिया। इस ऐतिहासिक भूल का खामियाजा दोनों देशों को लाखों नृशंस हत्याओं के रूप में उठाना पड़ा। इस विध्वंसकारी घटना से उपजी नफरत लगातार बढ़ती गई, जिसने आगे चल कर सांप्रदायिक हिंसा को देश में स्थापित कर दिया। विभाजन के दौरान हुई लाखों हत्याओं से हमने कोई सबक नहीं लिया, परिणामस्वरूप अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक वर्ग में टकराव बढ़ते चले गए।
डॉ. भीम राव अंबेडकर के अनुसार, 'बहुमत के लिए यह उचित नही है कि वह अल्पसंख्यकों की विद्यमानता अस्वीकार करे। यह उतना ही अनुचित होगा कि अल्पसंख्यक अलग-थलग बने रहें। इसका ऐसा हल निकाला जाना चाहिए, जिससे दो प्रयोजन सिद्ध हों। शुरू में तो अल्पसंख्यकों के आस्तित्व को मान्यता दी जानी चाहिए, लेकिन हल ऐसा होना चाहिए कि अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक आगे चलकर एक दिन एक-दूसरे में विलीन हो जाएं।'
डॉ. अंबेडकर का यह कथन दो समुदायों में उपजी कटुता को खत्म करने के लिए श्रेष्ठ साबित हो सकता था, लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हो सका। विभाजन, गरीबी, महामारी व सांप्रदायिक तनाव के बीच भारत विकास के रास्ते पर चलता रहा, लेकिन यह कटुता कम नहीं हुई, बल्कि समय-समय पर इसका और भी विकृत रूप सामने आता रहा। 1984 में सिख विरोधी दंगे, 1986 में कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार और उनका पलायन, 1989 में भागलपुर दंगे, 1992 में बाबरी विध्वंस और मुंबई दंगे, 2002 में गोधरा दंगे व 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों जैसी सैकड़ों घटनाओं के रूप में हमने अपनी गौरवशाली सहिष्णु संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट व कलंकित कर दिया। धर्मनिरपेक्षता किसी भी समाज की रीढ़ है, लेकिन इस विचारधारा को हमने दूषित कर दिया।
राजनेताओं ने लंबे समय तक इसका इस्तेमाल तुष्टिकरण के लिए किया और अब भी किया जा रहा है। छद्म सेक्युलरवादियों के मुकाबले में छद्म राष्ट्रवादियों की एक और जमात खड़ी हो गई, जिसने अपनी सुविधानुसार राष्ट्रवाद की नई परिभाषा तैयार की, जिसने सेक्युलरवादियों और छद्म सेक्युलरवादियों को एक कतार में खड़ा कर दिया। सोशल मीडिया के युग तक पहुंचते-पहुंचते हमने इतिहास से सबक लेने व उसके निष्पक्ष आकलन की अपनी समृद्ध परंपरा को भी खत्म कर दिया। सेक्युलरवाद और राष्ट्रवाद की जगह अवसरवाद की विचारधारा प्रमुख हो गई।
गांधी व नेहरू ने शायद इस खतरे को पहले ही भांप लिया था। दोनों ही एक बहुलतावादी समाज के समर्थक थे और भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के प्रबल पक्षधर थे, लेकिन दोनों की धर्मनिरपेक्षता संबंधी अवधारणा एक दूसरे से पूर्णत: अलग थी। गांधी अपने निजी और सार्वजनिक दोनों जीवन में एक धार्मिक व्यक्ति थे। वे राजनीति और धर्म के बीच नजदीकी संबंध के हिमायती थे। गांधी राजनीति को नैतिकता के मूल्यों पर आधारित करना चाहते थे। उनके नैतिकता के मूल्यों में धार्मिक संस्कार स्पष्ट दिखाई देते थे। जबकि नेहरू एक नास्तिक व्यक्ति थे और वे गांधी से उलट राजनीति व धर्म के बीच किसी भी प्रकार का कोई संबंध रखने के खिलाफ थे। विचारधारा के इस बड़े अंतर के बावजूद दोनों इस बात पर सहमत थे कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है। इसे राष्ट्र की विचारधारा नहीं बनाया जा सकता।
इसके बावजूद भारत की राजनीति इस विचार के विपरीत काम करती रही। यही कारण है कि यह नफरत कमजोर होने की बजाय बलवती होती गई। छद्म सेक्युलरवादियों और छद्म राष्ट्रवादियों की लड़ाई में बहुलतावादी समाज की हमारी मूल भावना कहीं खो गई। वर्तमान में इस लड़ाई ने ऐसा रूप ले लिया है, जिसने देश को दो स्पष्ट विचारधाराओं में विभक्त कर दिया है। शास्त्रार्थ जैसी समृद्ध परंपराओं वाले भारत में विचारों की असहमति के प्रतिकार के रूप में नृशंस हत्याओं को जायज ठहराने का दौर चल पड़ा है। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे, एमएम कलबुर्गी व गौरी लंकेश जैसे हत्याकांड हाल की के वर्षों के ऐसे उदाहरण हैं, जिन्होंने हमारी पाश्विक सोच को उजागर कर दिया है। दूसरी ओर हिंदू धर्म की सनातनी सोच को नजरअंदाज कर उसकी कुरीतियों को धर्म की मुख्य सोच बताकर दुष्प्रचार का योजनाबद्ध कार्य भी निरंतर चल रहा है। जिसने इस टकराव को और धार दी है। इसे कुंद करने के लिए हमें सनातन धर्म की 'वसुधैव कुटुंबकम' की मूल सोच की ओर लौटना होगा। सेक्युलरवाद के नाम पर तुष्टिकरण का विरोध करना होगा।
-नितिन उपमन्यु।