काश कि सरहदों पर होतीं बर्फ की दीवारें
जो सियासी बयानों की गर्मी से पिघल जाया करतीं
सरहदों के दोनों ओर फैल जाता इनका ठंडा पानी
फिर कोई फूल खिलता इस पानी से नम हुई मिट्टी में
हर तरफ बिखर जाती जिसकी खुशबू
कंटीली तारों से छिले बिना कितना खूबसूरत और महफूज़ होता वो फूल
काश कि सरहदों पर होतीं बर्फ की दीवारें....
Thursday, May 26, 2016
बर्फ की दीवारें
Monday, May 16, 2016
रहगुज़र
ले चलो मुझे ले चलो
उस रहगुज़र पे ले चलो
हाथों में सबके हाथ हों
ऐसे सफ़र पे ले चलो
जहां भूख की दुनिया न हो
जहां लूट के किस्से न हों
गलियों में मिलता हो सुकूं
ऐसी डगर पे ले चलो
मज़हब की दीवारें न हों
और दीन का पर्दा न हो
सजदे से मिलता हो ख़ुदा
मुझे ऐसे दर पे ले चलो
जहां सोच पर पहरा न हो
जहां ख़्वाब पर बंदिश न हो
जहां क़ैद में हों रूढ़ियां
उस कारागर पे ले चलो
जहां कोख में न क़त्ल हों
चेहरे पे न तेज़ाब हो
जहां मुस्कुराएं बेटियां
किसी ऐसे घर पे ले चलो
मज़दूर न मजबूर हों
और खेतिहर खुशहाल हों
जहां शाख़ पे न लाश हो
ऐसे शजर पे ले चलो
पगडंडियों को छोड़ कर
सड़कों पे न भटके कोई
जहां गांव जैसी बात हो
ऐसे शहर पे ले चलो
जहां रात अंधियारी न हो
जहां दोपहर तपती न हो
जहां शाम को सूरज उगे
ऐसी सहर पे ले चलो
ले चलो मुझे ले चलो
उस रहगुज़र पे ले चलो...
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