Monday, May 16, 2016

रहगुज़र

ले चलो मुझे ले चलो
उस रहगुज़र पे ले चलो
हाथों में सबके हाथ हों
ऐसे सफ़र पे ले चलो

जहां भूख की दुनिया न हो
जहां लूट के किस्से न हों
गलियों में मिलता हो सुकूं
ऐसी डगर पे ले चलो

मज़हब की दीवारें न हों
और दीन का पर्दा न हो
सजदे से मिलता हो ख़ुदा
मुझे ऐसे दर पे ले चलो

जहां सोच पर पहरा न हो
जहां ख़्वाब पर बंदिश न हो
जहां क़ैद में हों रूढ़ियां
उस कारागर पे ले चलो

जहां कोख में न क़त्ल हों
चेहरे पे न तेज़ाब हो
जहां मुस्कुराएं बेटियां
किसी ऐसे घर पे ले चलो

मज़दूर न मजबूर हों
और खेतिहर खुशहाल हों
जहां शाख़ पे न लाश हो
ऐसे शजर पे ले चलो

पगडंडियों को छोड़ कर
सड़कों पे न भटके कोई
जहां गांव जैसी बात हो
ऐसे शहर पे ले चलो

जहां रात अंधियारी न हो
जहां दोपहर तपती न हो
जहां शाम को सूरज उगे
ऐसी सहर पे ले चलो

ले चलो मुझे ले चलो
उस रहगुज़र पे ले चलो...

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