Thursday, May 28, 2020

मज़दूर का दर्द

ये दर्द नया नहीं
सदियों पहले भी था
और आज भी है
सिर पर गठरी उठाए
पीठ पर बच्चा लटकाए
ये तस्वीर
नई नहीं
सदियों पहले भी थी
जब फैक्ट्रियां नहीं थीं
ये अधनंगे बदन
तब भी थे
ये गुमनाम मौतें
ये बिलखती रूहें
तब भी थीं
ये हिक़ारत भरी नज़रें
ये दमन की लालसा
ये आबरू के सौदे
ये पर्दापोशी के मजमे
तब भी थे
कौड़ी कौड़ी को
लाचार हाथ
जुल्म सहते जिस्म
तब भी थे
भूख की तड़प
और रोटी की सियासत
तब भी थी
कबीलों से राजशाही
राजशाही से ग़ुलामी
और ग़ुलामी से लोकशाही
इस लंबे सफ़र में
दर्द की इंतहा
तब भी थी
और आज भी है
...लेकिन ये उस वक़्त नहीं था
जब हम सभ्य नहीं थे
अफसोस!! हम सभ्य क्यों हुए?

उड़ान

उसने सबसे पहले
दाहिने पंख पर कील ठोंकी
लेकिन वो उड़ गया
उसने बाएं पंख पर कील ठोंकी
लेकिन वो फिर उड़ गया
उसने दाहिना पंख काट दिया
अब वो फड़फड़ाने लगा
उसने बायां पंख भी काट दिया
अब वो लड़खड़ा कर चलने लगा
कुछ देर चला
और फिर गिर गया
अब उसने पंखों पर मरहम लगाया
सारी कायनात को दिखाया
अपनी दयालुता से सबको मोह लिया
उसका जयघोष होने लगा
फिर उसने...
खुले आसमान में उड़ने वाले को
पंजों पर चलना सिखाया
अपने दरबार में बिठाया
और एलान किया...
इक दिन यूं ही तुम्हें
उड़ना भी सिखा दूंगा
दरबार तालियों से गूंज उठा!!

Friday, May 8, 2020

ख़ानाबदोशी

2122 2122 2122 22
इस तरह आंखें चुराने की ज़रूरत क्या है
झूठ का परदा चढ़ाने की ज़रूरत क्या है

हर तरफ ख़ानाबदोशी है सितमगर अब तो
दर-ब-दर मजमा लगाने की ज़रूरत क्या है

चोर कोई है छिपा दिल में अगर तो कह दे
बेवजह दिल को दुखाने की ज़रूरत क्या है

बस्तियां होने लगी ख़ाली कि डर लगता है
अब चराग़ों को जलाने की ज़रूरत क्या है

हैं अगर दोस्त ज़माने में रक़ीबों जैसे
पास दुश्मन को बिठाने की ज़रूरत क्या है

आख़िरी होगा सफ़र मालूम तो था सबको
बात ये दिल से लगाने की ज़रूरत क्या है