Friday, April 21, 2023

मां का जन्मदिन

मां का एक और जन्मदिन बीत गया 
चुपचाप, ख़ामोश सा 
सब के जन्मदिन से बिल्कुल अलग 

सुबह-सुबह कोई नहीं उठा 
न आंगन में लिपाई हुई
न पूजा की थाली सजी

हलवे के लिए बादाम भिगोने थे रात में 
लेकिन याद ही नहीं रहा किसी को

मीलों दूर से बस एक फोन आया 
कैसी हो मां...? 
कुछ खास नहीं बनाया इस बार?
जवाब मिला- तुम आओगे 
तो बनाऊंगी कुछ... 

मां के चेहरे की मुस्कान 
मुझे मीलों दूर से साफ दिख गई
हमेशा की तरह... शफ़्फ़ाक!!!

इंसाफ

अभी-अभी आई इक ताज़ा ख़बर
कुछ दंगाई, बलात्कारी
रिहा हो गए... बाइज़्ज़त!!

जश्न मना, ढोल बजा 
गले हारों से लद गए 
निर्लज्ज चेहरे खिल गए 

न्याय की देवी निहारती रही 
बेबस होकर यह दृश्य 

न्याय के देवता करते रहे कागज़ काले 
काली अंधेरी कोठरी में घुट घट रोता रहा इंसाफ 

न्याय की यह नई परिभाषा 
बहुत भयानक है 
बहुत भयानक...

इक रोज़...

इक रोज चलूंगा यूं ही
लंबी सुनसान सड़क पर
कुछ कदम नंगे पांव

फिर यूं ही चढ़ जाऊंगा
इक बड़ी चट्टान पर
हवा में हाथ खोल चिल्लाऊंगा

कुछ पल बैठ जाऊंगा
जंगल की पगडंडी पर 
और ढलान पर लेटूंगा कुछ देर 

बारिश में भीगते हुए
गाऊंगा कोई विरह गीत
इक रोज...

खेत की मेढ़ पर बैठकर 
बर्फ से ढकी चोटियां निहारूंगा

गली में बच्चों संग खेलूंगा 
कोई पुराना खेल

मां की गोद में सिर रख
सुनूंगा कोई अधूरी कहानी

पिता की किताब को छाती पर रख
सो जाऊंगा कुछ देर

तुम देखना!
मैं करूंगा ये सब
इक रोज़...