Sunday, June 28, 2015

आवाज़

पीठ फेर लेने से क्या होगा?
शब्द तो फिर शब्द हैं
टकरा कर लौट आएंगे
गूंजते रहेंगे तब तक
जब तक एक भी बाकी है
सुनने वाला
दबेंगे नहीं दबाने से
टकरा कर लौट आएंगे..
यूं पीठ फेर लेने से क्या होगा?
सड़क पर चलती लाश का
हाथ पकड़ना होगा
करनी होगी मशान की अगुआई
अंगार फूंकना होगा अंदर तक
आग तो फिर आग है
भड़क उठेगी लपक कर
यूं चिंगारी बुझाने से क्या होगा?
देखना ही होगा वहशत का नाच
अपनी नंगी आंखों से
जुटाना होगा कतरा-कतरा लहू
मक्कारों का लहू बहाने के लिए
हौसला तो फिर हौसला है
निडर होकर दिखाएगा रास्ता
यूं आंखें चुराने से क्या होगा?
जुबां लड़खड़ाएगी कुछ देर
हिम्मत टूटने लगेगी
धराशायी होने लगेंगे सपने
लेकिन गला फाड़कर चिल्लाना होगा
आवाज़ तो फिर आवाज़ है
चीर देगी पहाड़ भी
यूं खामोश रहने से क्या होगा?
चमड़े के बूट तले
रौंद दिए जाएंगे अधिकार
बाल पकड़ कर सड़क पर
इज्ज़त उतारी जाएगी
लेकिन कब तक बने रहोगे पत्थर
पत्थर तो फिर पत्थर है
टूटेगा तो तबाह कर देगा
यूं बुत बने रहने से क्या होगा?

Saturday, June 27, 2015

मुलाकात

सूरज की तपिश तेज़ है, पर रात भी होगी
धूप की फिर चांदनी से मात भी होगी
दिन रात बरसना तो बादल का फ़न नहीं
बदलेगा जब ये मौसम, बरसात भी होगी

वो वस्ल के लम्हात, भुला नहीं सकता
क्यों बिगड़े थे हालात, बता नहीं सकता
रमज़ान का मौसम है, रोज़ों की फ़िक्र है
जब ईद-ए-मिलाद होगी, मुलाकात भी होगी

खामोशियों के कांच सभी टूट जाएंगे
गिले-शिकवे सारे पीछे छूट जाएंगे
खुशफ़हमियों के पर्दे हटा करके तो देखो
दुश्मनों से दोस्तों सी बात भी होगी।

Monday, June 15, 2015

वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों धुआं उठा है दूर कहीं, कहीं तो आग लगी होगी
क्यों शोर थम गया मस्जिद में, अजान कोई घुटी होगी
क्यों मंदिर सब वीरान हो गए, लहू की धार बही होगी
क्यों भीड़ लगी है कुएं पर, कोई इज्ज़तदार मरी होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों शीशमहल में रौनक है, चूल्हे की आग बुझी होगी
क्यों भूखी सो गईं बच्चियां, कुछ दाल नहीं गली होगी
क्यों मजमा सा है गलियों में, गोली कहीं चली होगी
क्यों ख़ून बहा है रिश्तों का, कोई बंदरबांट हुई होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों बहते हैं मां के आंसू, कोई ज़िंदा लाश बिकी होगी
क्यों बाप के कंधे झुके हुए, पगड़ी कहीं झुकी होगी
क्यों सड़कों पर पहरा है, कोई अस्मत कहीं लुटी होगी
क्यों नेता बेखौफ़ खड़े हैं, बत्ती नई मिली होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों गुस्से में तनीं मुट्ठियां, बेकारी राह खड़ी होगी
क्यों फाइल हटी है टेबल से, रिश्वत कहीं बंटी होगी
क्यों पकड़े मासूम फिर गए, पुलिस की खूब चली होगी
क्यों ऊसूल नीलाम हो गए, कीमत सही मिली होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?

क्यों सीमा पर सन्नाटा है, रिश्तों की रेल चली होगी
क्यों फिर मुल्कों को बांटा है, शतरंज सी चाल चली होगी
क्यों दर्द उठा है सीने में, मिट्टी कहीं छिनी होगी
क्यों झंडे झुके हैं सरहद पर, शहीद की लाश मिली होगी
ये दुनिया गर ऐसी है, वो दुनिया कैसी होगी?
वो दुनिया कैसी होगी?

नेरूदा तुम कब आओगे?












नेरूदा तुम कब आओगे
मन की गिरहें सुलझाओगे
तुम कहते थे चुप रहना बात बुरी है
लेकिन कुछ लोग खड़े हैं अब भी
लिहाफ ओढ़े सन्नाटों का
इस लिहाफ में आग लगाने
कब आओगे?
अंधे कुएं में कुछ लाशें तैर रहीं हैं
मंदिर-मस्जिद जिनकी आंखों का बैर रहीं हैं
उन आंखों को ख़्वाब दिखाने
कब आओगे?
नीलामघरों में अब भी लगती है जिस्मों की बोली
नोच ले जाते हैँ बाज़ अब भी कंधों का मांस
फब्तियों के डर से अब भी झूल जाती हैं जवानियां
खून से सने पंजों को झुलसाने
कब आओगे?
ख़ुद्दारों के घुटने अब भी झुक जाते हैं लाल बत्तियों के आगे
दफ्तरों में बूढ़े कंधों पर अब भी भारी पड़ता है नोटों का बोझ
खुशामद करने वाले हाथोँ का अब भी लिया जाता है बोसा
तपते फ़र्श पर हथेलियां बिछाने
कब आओगे?
अन्न उगाने वाले अब भी मरते हैं भूखे
अब भी मज़दूरों के बच्चे बिलखते हैं सड़कों पर
नौकरी के लिए अब भी गिड़गिड़ाना पड़ता है
जाहिलों के सामने
अय्याशों का खेल मिटाने
कब आओगे?
कुछ भी तो नहीं बदला नेरूदा
तुम्हारे जाने के बाद
जो लोग जगाए थे तुमने
वो सब मुर्दा हो गए
तुम ज़िंदा हो लेकिन अब भी
ख़ामोश क्यों हो लेकिन?
तुम ही तो कहते थे
चुप रहना बात बुरी है।
पंखों को परवाज़ बनाने
कब आओगे??
नेरूदा तुम कब आओगे?
(पाब्लो नेरूदा की याद में) 

Friday, June 5, 2015

पत्थर

पत्थरों से बाहर निकलो
पत्थरों को तोड़ कर
कि ऊब नहीं जाते तुम
यूं पत्थर बने हुए
कभी हड्डियां खोलने को मन नहीं करता ?
या बने रहना चाहते हो पत्थर ही
बेजान से, नि:शब्द
या जानते नहीं कि कुचल सकते हो
रूढ़ियों को मजबूती से
क्योंकि हो पत्थर इसलिए
तुम्हारा बेनूर होता चेहरा
सपाट हो जाएगा इक दिन
फिर मूरत से घिसते-घिसते
बन ही जाओगे सच में पत्थर
कोई नहीं फेरेगा नरम अंगुलियां तुम पर
कभी ज़लज़ले में टूट कर बिखर जाओगे
कोई नहीं पहचान पाएगा तुम्हारा
अस्तित्व और गौरवमयी इतिहास
इसीलिए कहता हूं
पत्थरों से बाहर निकलो
पत्थरों को तोड़ कर।

Thursday, June 4, 2015

ख़्वाब-2

सुलगती हथेलियों में
अंजुरी भर ठंडे ख़्वाब
संजो कर रखे थे
इक ठोकर से छिटके
सीढ़ियों से बिखरते हुए जा गिरे
मेरी ड्योढ़ी पर
फिर फटी चप्पल से झांकती
एड़ियों के बीच
मसले गए
गर्म कुरकुरी रेत पर
एड़ियां नहीं छिलीं
लेकिन ताबीर छिल गई
मेरे ख़्वाबों की
अब डर डर के देते हैं दस्तक
मेरी ड्योढ़ी पर...

कब तलक

212 212 212 212
आपके प्यार में रोएंगे कब तलक
रात ढल जाएगी सोएंगे कब तलक।
ख्वाहिशें बोझ बन जाएंगी गर सभी
या ख़ुदा बोझ ये ढोएंगे कब तलक।
जो मिला राह में छूटता ही गया
इस तरह हमसफर खोएंगे कब तलक।
याद में जब कभी आएंगे हादसे
आंसुओं से उन्हें धोएंगे कब तलक।
नफरतों की फ़सल काटते तुम रहे
प्यार के बीज हम बोएंगे कब तलक।