Wednesday, November 27, 2019

तवारीख़

तवारीख़


काश कि बदल पाती ये तवारीख़
तो मैं बदल देता नफ़रतों के ग़ुबार का रुख
कि जिन्होंने तबाह कर दी तमाम नस्लें
कि जिन्होंने बारूद भर दिया आंखों में
और छीन लिए ख़ुशनुमा सपने
कि जिन्होंने शमशीरें थमा दी हाथों में
और छीन लिया पत्थरों में जान फूंकने का हुनर
कि जिन्होंने जहर उड़ेल दिया हलक में 
और छीन लिए फागुन के मीठे गीत
कि जिन्होंने कानों में भर दिए भड़कते शोले
और छीन ली टेकरी पर बजती बांसुरी की धुन

काश कि बदल पाती ये तवारीख़
तो मैं समंदर में डुबो देता तमाम रूढ़ियों को
कि जिन्होंने दोज़ख़ बना दी यह ज़िन्दगी
कि जिन्होंने शर्मसार कर दिया इंसानी रूह को
और शैतान आबाद हो गए बेहयाई से
कि जिन्होंने बेड़ियों में जकड़ ली कतरा-कतरा सांस
और महल-अटारियों में गहरी नींद सो गए
कि जिन्होंने पत्थरों पे लिख दी कायदों की इबारतें
और स्याहपोश नक़ाब पहन न्याय का ढोंग किया
कि जिन्होंने मजहब के नाम पर फ़साद कराए
और पांव तले रौंद डाले सभी धर्मग्रंथ

काश की बदल पाती ये तवारीख़
तो मैं नामोनिशां मिटा देता सरहदों का
कि जिन्होंने न जाने कितने हिस्सों में बांट दी दुनिया
कि जिन्होंने अंबार लगा दिए लाशों के
और खड़े कर दिए दंभ के शौर्य स्तंभ
कि जिन्होंने तार-तार कर दिए इंसानी रिश्ते
और जिस्म में भर दी जानवरों सी वहशत
कि जिन्होंने हर पहचान मिटा दी
और दर-बदर लावारिस बना दिया
कि जिन्होंने छीन लिया मासूमों का बचपन
और नस्लों की जवानी तबाह कर दी

काश कि बदल पाती तवारीख़
तो मैं ये सब बदल देता....

Tuesday, November 26, 2019

ग़ुलाम रूहें

ग़ुलाम जिस्मों से
कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होती हैं
ग़ुलाम रूहें

ग़ुलाम दिमागों से
कहीं ज़्यादा भयानक होती हैं
ग़ुलाम रूहें

जिस्मों की ग़ुलामी
ख़त्म हो जाती है
जिस्म ख़त्म होने के बाद

दिमागों की ग़ुलामी
रुक जाती है
धड़कनें रुकने के बाद

लेकिन रूहें हमेशा
ग़ुलाम रहती हैं
क्योंकि वे मरतीं नहीं

वे अनंत काल तक
जिस्मों को ढोती हैं
और इन्हें बनाती चली जाती हैं
और भी ग़ुलाम

ये नस्लों को ग़ुलाम बना देती हैं
ये नहीं पहचानतीं
अच्छे-बुरे का भेद

ये नहीं जानतीं
प्यार और नफ़रत का खेल

इन्हें ओढ़ कर जिस्म भी
बन जाते हैं कठपुतली
और दिमाग़ मशीन

इसलिए ग़ुलाम जिस्मों से
कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होती हैं
ग़ुलाम रूहें...

Saturday, November 23, 2019

साजिशें

ये नीम-शब की साजिशें
ये बेहिसाब साजिशें
ज़िंदगी के मोड़ पर
ये जानलेवा साजिशें
सफेदपोश चेहरों की
स्याहपोश साजिशें
अंधेरों के खेल में
रोशनी से साजिशें
है कौन इन्हें बुन रहा
है कौन इन्हें सुन रहा
ख़ुद से भी हैं  बेख़बर
ये क़ातिलाना साजिशें
हर गली, हर मोड़ पर
हर सड़क, हर चौक पर
ज़मीं पे हैं बिखरी पड़ीं
ये आसमां की साजिशें
साजिशों के हैं मकां
साजिशों की है दुकां
भरे हुए पेट की
भूख से हैं साजिशें
सब तरफ फ़ितूर है
बात कुछ ज़रूर है
मोहब्बतों की बात में
नफ़रतों की साजिशें
हर कोई बीमार है
चारागर लाचार है
हंसी के बाज़ार में
आंसुओं की साजिशें
ये नीम-शब की साजिशें
ये बेहिसाब साजिशें...

Saturday, September 28, 2019

अंतर्द्वंद्व: पहले और अब

पहले...
उनकी ऊंची-ऊंची आवाज़ें
चुभा करती थीं कानों में
उनकी फूहड़ सी हंसी
मन को भर देती थी क्रोध से
उनके शक्ति प्रदर्शन से
कभी खून खौला करता था
उनकी अज्ञानता पर
शर्म महसूस हुआ करती थी
उनके झूठ पर
चिल्लाने को मन करता था
उनकी नफ़रत भरी बातें
ज़हर बुझे तीर सी लगती थीं
अब...
उनकी ऊंची ऊंची आवाज़ें
जलसों की शान हैं
उनकी फूहड़ हसीं पर
सब हंसते हैं ठहाके लगाकर
उनके शक्ति प्रदर्शन पर
लोग मर-मिटने को तैयार हैं
उनकी अज्ञानता पर भी
तारीफों के पुल बंधते हैं
उनका झूठ अब झूठ नहीं
इतिहास का पुनर्लेखन है
उनकी नफ़रत भरी बातें
अब एकता का मूल मंत्र हैं
मन अंतर्द्वंद्व से जूझ रहा है
क्या सही है, क्या गलत...!!

Thursday, August 15, 2019

राह

इस राह चलूं,
उस राह चलूं
है शोर बहुत
किस राह चलूं
है चाह यही
इस जीवन की
मैं मुश्किल सी
इक राह चलूं
हैं खौफ़ बहुत
इन रस्तों पर
मैं निर्भय
बेपरवाह चलूं
रुकना न पड़े
झुकना न पड़े
दिन रैन बरस
और माह चलूं
मैं छोड़ चलूं
सब खुदगर्ज़ी
मैं छोड़ सभी
फिर चाह चलूं
जिस राह चलूं
उस राह चलूं
फिर और न
कोई राह चलूं

भूख 2

भूख क्या है
अन्न के चंद दानों के लिए छटपटाहट?
यह अभिशाप है
पीढ़ी दर पीढ़ी चलता जा रहा अभिशाप
कभी न ख़त्म होने वाला अभिशाप
हमारी मौक़ापरस्त ज़िंदगी का चेहरा
हमारी लाचारी का स्याह सच
सफेद कपड़ों पर बेशर्मी का पैबंद
जिसका प्रदर्शन कर रहे हैं हम
छाती पर लगे तमगे की तरह
आंकड़ों का पहाड़ बनाने को कर रहे मेहनत
राजनीति के मंच पर अच्छा भाषण है भूख
(दिसंबर 2015)

Tuesday, June 11, 2019

अलीगढ़ दुष्कर्म व हत्याकांड पर...

दे अगर जो ज़िंदगी, फिर बेकसी ऐसी न दे
मौत से हो सामना तो बेबसी ऐसी न दे

है अगर रोना हमारी किस्मतों में लिख दिया
जालिमों की ज़िंदगी में भी हंसी ऐसी न दे

देर से आए 'मसीहा', आबरू न बच सकी
दिल अगर जो दे ख़ुदा तो बेहिसी ऐसी न दे

लाश पर भी लोग करने वो सियासत आ गए
भेड़ियों की आंख में तौबा ख़ुशी ऐसी न दे

Friday, March 1, 2019

युद्ध और कुर्सी

शांति के लिए युद्ध होते हैं
लेकिन कहां आ पाती है शांति युद्ध के बाद भी
लाखों लाशों पर होने वाले रुदन-विलाप भंग कर देते हैं शांति
युद्ध से मिले ज़ख्म छीन लेते हैं नींद भी
बम नहीं पहचान पाते मासूम चेहरे
वे सभी चेहरों को चीथड़ों में बदल देते हैं
लेकिन फिर भी मुस्कुराते हैं कुछ चेहरे
लाशों के ढेर पर और ऊंची हो जाती है उनकी कुर्सी।

गिद्ध और राजनेता

ऊंची डाल पर बैठे गिद्ध
देख रहे हैं चीते और हिरण की लड़ाई
देख रहे हैं चीते का साहस और बल
भर पेट खाने के बाद चीता लौट जाएगा अपनी मांद को
...और गिद्ध हड्डियों में बचा-खुचा मांस नोचेंगे
गर्दन उठा कर इतराएंगे, शिकार पर करेंगे दावा
राजनेताओं सा यह गुण
किसने किससे सीखा?
गिद्धों ने राजनेताओं से या राजनेताओं ने गिद्धों से...