Thursday, December 24, 2020

डर

आखिर किस बात से डरते हो?
आवाज़ से डरते हो?
ये आवाज़ तो भूखे पेट की है
शोषण के ख़िलाफ़ है
ये आवाज़ तो सच की है
तो क्या सच से डरते हो?
सच तो कभी छिपता नहीं
झुकता नहीं
मुड़ता नहीं
झूठ को बेनकाब करता है
तो क्या बेनकाब होने से डरते हो?
जो बेनकाब हो भी गए, तो क्या?
एक चेहरा ही तो सामने आएगा
अपना ही चेहरा...
तो क्या अपने चेहरे से डरते हो?
अच्छा! मतलब ख़ुद से ही डरते हो!!

मशीन

जब...
पहली बार आई थी मशीन
तो डर गए थे हम
इंसान का क्या होगा?
क्या मिट जाएगा वजूद?
क्या सब गुलाम हो जाएंगे?
क्या सब भूखे मरेंगे?
मशीन ही राज करेगी?
कौंध गए थे सैकड़ों प्रश्न
लेकिन आज...
हमें मशीन से कोई खतरा नहीं
क्योंकि आज...
हम सब बन गए हैं मशीन
अब नहीं कौंधते सैकड़ों प्रश्न।।

Thursday, November 26, 2020

मुंबई हमला (26/11)

बुझ गए चिराग जिनके
उनके दिल से पूछिए
छोड़िए नेता का भाषण
अपने दिल से पूछिए
जब चली थीं गोलियां
तो किसका सीना था वहां
किसकी उजड़ी मांग थी
ये हुक्मरां से पूछिए
कौन ऐसा बाप था
कंधे पे जिसके लाश थी
कैसे रोके थे ये आंसू
मां के दिल से पूछिए
चेहरे पे कितने ज़ख्म थे
हाथों में कितना था लहू
क्या रंग राखी था उस दिन
ये बहन से पूछिए
खामोश थीं किलकारियां
आंगन भी कुछ गुमसुम सा था
गूंजी थीं किसकी सिसकियां
बेटी के दिल से पूछिए।

प्रेम

दिल किसी का न दुखाए
बस वही तो प्रेम है
रोते चेहरे को हंसाए
बस वही तो प्रेम है
तल्खियां बढ़ जाएं जब
दो दिलों के दरमियां
गीत कोई गुनगुनाए
बस वही तो प्रेम है
जब कभी उड़ने लगो तुम
बेवजह आकाश में
पैर धरती पर टिकाए
बस वही तो प्रेम है
ज़िंदगी में भूल कर
हो जाए गर जो भूल तो
भूले को रस्ता दिखाए
बस वही तो प्रेम है
प्रेम में न सरहदें
प्रेम में न बंदिशें
उन्मुक्त सा उड़ता जो जाए
बस वही तो प्रेम है
प्यार की फसलों पे जब
हों ज़हर की बारिशें
गुल मोहब्बत के खिलाए
बस वही तो प्रेम है...

Friday, November 13, 2020

दौर

ये गिरावट का दौर है
भाषा गिर रही
शालीनता नहीं, फूहड़ता का दौर है
संवेदनाएं शून्य हैं
भावुकता नहीं, क्रूरता का दौर है
बौद्धिकता का है पतन
ज्ञान नहीं, अभिमान का दौर है
अभिव्यक्ति खतरे में
बोलने नहीं, डरने का दौर है
सत्य है संकट में
झूठ पर इतराने का दौर है
संस्कार गिर रहे
अदब नहीं, बदज़ुबानी का दौर है
विवेक क्षीण हो रहा
तर्क नहीं, कुतर्क का दौर है
हर दौर गुज़रा है
ये भी गुज़र जाएगा
कहेंगे लोग, इक वो भी दौर था
इक ये भी दौर है

मग़रूर

वो शख़्स जो मग़रूर है
वो इक नशे में चूर है
बात करता है फ़लक की
पर जमीं से दूर है
इक रंग में रंगने चला
सिर पे चढ़ा ये फ़ितूर है
ज़ुबां पे नफ़रत का ज़हर
दुनिया कहे ये शऊर है
झूठ पर वो झूठ बोले
सच यही मशहूर है
हाथ डूबे हैं लहू में
कुछ न कुछ तो कसूर है
न ख़ुदा का खौफ़ खाए
इतना उसमें ग़ुरूर है
वो शख़्स जो मग़रूर है...

Thursday, September 24, 2020

एक, दो, तीन

एक...
एक जैसा सोचो
एक जैसा पहनो
एक जैसा खाओ-पियो
एक में ही सुरक्षा है
इसलिए एक हो जाओ!!
दो...
दो से द्वेष है
दो से दोष है
दो से द्रोह है
दो से एक को ख़तरा है
इसलिए एक हो जाओ!!
तीन...
तीन में सृजन है
तीन में चिंतन है
तीन में मंथन है
मंथन में घर्षण है
घर्षण में टकराव है
इसलिए एक हो जाओ!!

वर्जनाओं के उस पार...

वर्जनाएं तोड़ डालो
इनके आगे साधना है
जीवन है, दर्शन है

गर्जनाएं रौंद डालो
इनके आगे मौन है
ज्ञान है, सम्मान है

तर्जनाएं काट डालो
इनके आगे प्रेम है
भक्ति है, आसक्ति है

सर्जनाएं बांट डालो
इनके आगे कल्पना है
संसार है, उद्धार है

Friday, September 11, 2020

पाश

पाश! तुमने कहा था...
सबसे ख़तरनाक होता है...
सपनों का मर जाना
मुर्दा शांति से भर जाना
तुम्हारी वो बातें आज भी गूंजती हैं
मुर्दा शांति को भंग करती हैं
वो मुर्दा जिस्म आज भी टहलते हैं
घर से निकलते हैं सुबह...
और शाम को लौट आते हैं
बिना कोई सवाल किए
बस हथौड़ा पीटते हैं
यहां सब खुश हैं पाश
काश तुम भी जिंदा होते
सपनों को ज़िंदा रखते
बड़े बेवक़्त चले गए।।

Friday, June 12, 2020

सलाम

सलाम कर, सलाम कर
निज़ाम को, सलाम कर
सुबह कर शाम कर
बस यही काम कर
निज़ाम को सलाम कर

मत कोई सवाल कर
मत कोई बवाल कर
लाश बनके देख सब
आंख को संभाल कर
शातिरों की भीड़ में
शातिरों सा काम कर
निज़ाम को सलाम कर

ये है तुम्हारा हक नहीं
कर सको जो शक कहीं
सब तो ठीक है यहां
शक की है जगह कहां
चुपचाप अपना काम कर
निज़ाम को सलाम कर

बेवजह न बोल तू
यूं ज़हर न घोल तू
क्या मिलेगा पूछ कर
जवाब खुद ही बोल तू
ज़िंदा है अभी तलक
बस इसका एहतराम कर
निज़ाम को सलाम कर

मुख़ालफ़त की सोच मत
ज़ख्म कोई नोच मत
रेंगने की बात कर
दौड़ने की सोच मत
जिस्म अपना मोड़ कर
रूह को ग़ुलाम कर
निज़ाम को सलाम कर

जाहिलों का दौर है
शोर चारों ओर है
जिससे खौफ़ खा रहा
उसके दिल में चोर है
बोलने सभी लगें
कुछ ऐसा इंतज़ाम कर
सलाम कर, सलाम कर...

Thursday, May 28, 2020

मज़दूर का दर्द

ये दर्द नया नहीं
सदियों पहले भी था
और आज भी है
सिर पर गठरी उठाए
पीठ पर बच्चा लटकाए
ये तस्वीर
नई नहीं
सदियों पहले भी थी
जब फैक्ट्रियां नहीं थीं
ये अधनंगे बदन
तब भी थे
ये गुमनाम मौतें
ये बिलखती रूहें
तब भी थीं
ये हिक़ारत भरी नज़रें
ये दमन की लालसा
ये आबरू के सौदे
ये पर्दापोशी के मजमे
तब भी थे
कौड़ी कौड़ी को
लाचार हाथ
जुल्म सहते जिस्म
तब भी थे
भूख की तड़प
और रोटी की सियासत
तब भी थी
कबीलों से राजशाही
राजशाही से ग़ुलामी
और ग़ुलामी से लोकशाही
इस लंबे सफ़र में
दर्द की इंतहा
तब भी थी
और आज भी है
...लेकिन ये उस वक़्त नहीं था
जब हम सभ्य नहीं थे
अफसोस!! हम सभ्य क्यों हुए?

उड़ान

उसने सबसे पहले
दाहिने पंख पर कील ठोंकी
लेकिन वो उड़ गया
उसने बाएं पंख पर कील ठोंकी
लेकिन वो फिर उड़ गया
उसने दाहिना पंख काट दिया
अब वो फड़फड़ाने लगा
उसने बायां पंख भी काट दिया
अब वो लड़खड़ा कर चलने लगा
कुछ देर चला
और फिर गिर गया
अब उसने पंखों पर मरहम लगाया
सारी कायनात को दिखाया
अपनी दयालुता से सबको मोह लिया
उसका जयघोष होने लगा
फिर उसने...
खुले आसमान में उड़ने वाले को
पंजों पर चलना सिखाया
अपने दरबार में बिठाया
और एलान किया...
इक दिन यूं ही तुम्हें
उड़ना भी सिखा दूंगा
दरबार तालियों से गूंज उठा!!

Friday, May 8, 2020

ख़ानाबदोशी

2122 2122 2122 22
इस तरह आंखें चुराने की ज़रूरत क्या है
झूठ का परदा चढ़ाने की ज़रूरत क्या है

हर तरफ ख़ानाबदोशी है सितमगर अब तो
दर-ब-दर मजमा लगाने की ज़रूरत क्या है

चोर कोई है छिपा दिल में अगर तो कह दे
बेवजह दिल को दुखाने की ज़रूरत क्या है

बस्तियां होने लगी ख़ाली कि डर लगता है
अब चराग़ों को जलाने की ज़रूरत क्या है

हैं अगर दोस्त ज़माने में रक़ीबों जैसे
पास दुश्मन को बिठाने की ज़रूरत क्या है

आख़िरी होगा सफ़र मालूम तो था सबको
बात ये दिल से लगाने की ज़रूरत क्या है

Wednesday, April 29, 2020

इंतज़ार

(अभिनेता इरफान खान के निधन पर। उनके आखिरी शब्द थे "मेरा इंतज़ार करना")

मेरा इंतज़ार करना
मैं लौटूंगा इक दिन
इन हवाओं में घुलकर
तुमसे बातें करूंगा
फ़िल्म के किसी डायलॉग की तरह
मैं पूछूंगा तुमसे...
मेरे जाने के बाद
कितना हंसे तुम
कितना मुस्कुराए
कितना खिलखिलाए
तुम रोने की बात मत करना
मैं पूछूंगा तुमसे...
कैसे लड़े अपने अंतर्द्वंद्व से
कैसे भिड़े हालात से
कैसे अड़े मुश्किलों से
तुम हारने की बात मत करना
मैं सुनूंगा तुमसे...
कुछ किस्से
कब हुई थी तुम्हें पहली मोहब्बत
कब बारिश में भीगे थे आखिरी बार
कब ऊंची आवाज़ में गाया था गाना
तुम विरह की बात मत करना
मैं लड़ूंगा तुमसे...
क्यों उलझे रहते हो इन झमेलों में
क्यों सिर झुका के चलते हो
क्यों ज़िंदगी को बोझ बना रखा है
तुम बहानों की बात मत करना
खुलकर उड़ना परिंदों की तरह
खुलकर बहना झरनों की तरह
खुलकर लुटाना मनमर्ज़ियां
सीधा सा जवाब देना मेरे सवालों का
मेरा इंतज़ार करना।

Sunday, March 29, 2020

युद्ध और शिलालेख

सैनिकों के दम पर ही लड़े जाते हैं युद्ध
मारे भी सैनिक ही जाते हैं, जीतते भी सैनिक ही हैं
मक्कार सेनापति सैनिकों को बनाते हैं ढाल
वीर सेनापति बन जाते हैं सैनिकों की ढाल
मक्कार राजा हाथियों पर सवार होकर लेते हैं युद्ध का आनंद
वीर राजा हाथियों से उतरकर रणभूमि में दिखाते हैं पराक्रम
मक्कार राजा सैनिकों की कब्र पर लिखवाते हैं अपनी प्रशंसा के शिलालेख
वीर राजा बलिदान देकर खुद ही बन जाते हैं शिलालेख...

Wednesday, March 4, 2020

मौत

मौत को रखा करो आंखों के सामने
इसे रोज़ महसूस किया करो
इससे डरो नहीं, बात किया करो
सैकड़ों सबक समेटे हुए है मौत
हज़ारों अनुभव हैं इसके पास
इनसे सीखा करो कुछ
जब भी कभी अहंकार से भर जाए मन
ख़ुद को ख़ुदा महसूस करने लगो
पांव जब ज़मीन पर न लगें
बेवजह हवा में उड़ने लगो
गर्दन और आंखें झुकने से इन्कार करें
तो मौत से बात किया करो, इससे डरो नहीं...

Wednesday, February 5, 2020

इम्तिहां

आज ख़ामोश सी है ज़ुबां क्यों मगर
बढ़ रहे फासले दरमियां क्यों मगर

ये शजर छांव देते नहीं आजकल
धूप है ले रही इम्तिहां क्यों मगर

इक चमन था बनाया बड़े शौक से
उस चमन का नहीं बागबां क्यों मगर

नाव मझधार में है फंसी फिर कहीं
है हवा से ख़फा बादबां क्यों मगर

राज़ थे राज़ हैं राज़ ही रह गए
राज़ ही हो गए राज़दां क्यों मगर

आग ही आग है नफरतों की यहां
हर तरफ है यहां बस धुआं क्यों मगर

थे निगहबान जो सरज़मीं के कभी
आज बनते नहीं पासबां क्यों मगर

Sunday, January 12, 2020

अकेला

भीड़ बनकर मत जियो तुम
भीड़ बनकर मत मरो तुम
आए जीवन में अकेले
छोड़कर सारे झमेले
अब अकेले ही चलो तुम

मत करो परवाह सबकी
फूल सी गर राह उनकी
तुम चुनो कांटों का रस्ता
मुश्किलों से हो वाबस्ता
अब अकेले ही चलो तुम

मोड़ आएंगे अंधेरे
शत्रु चारों ओर घेरे
इन सभी से पार पाकर
आस की इक लौ जलाकर
अब अकेले ही चलो तुम

सोच को आजाद रखो
ऊंची हर परवाज़ रखो
बेड़ियों को काट डालो
रूढ़ियों को छांट डालो
अब अकेले ही चलो तुम

भीड़ तो गुमराह करती
जिंदगी आगाह करती
लो सबक कुछ जिंदगी से
राह खोजो बंदगी से
अब अकेले ही चलो तुम

अंगुलियों का नाच छोड़ो
बीते कल की बात छोड़ो
है बहुत लंबा सफर यह
है बहुत मुश्किल डगर यह
अब अकेले ही चलो तुम...

Thursday, January 2, 2020

आवाज़ें

कितनी आवाज़ दबाओगे
कितनी परवाज़ दबाओगे
हम और ज़ोर से बोलेंगे
तुम जितना हमें डराओगे
कितनी आवाज़...

जब-जब भी डराया है तुमने
जब-जब भी दबाया है तुमने
हैं सबक तुम्हें कुछ याद नहीं
आखिर में मुंह की खाओगे
कितनी आवाज़...

मंदिर मस्जिद में बांट दिया
सदियों का रिश्ता काट दिया
अब राम और अल्लाह करते हो
ऊपर क्या मुंह दिखलाओगे
कितनी आवाज़...

जाहिल सी बातें करते हो
बस लट्ठ घुमाते चलते हो
जां हाथ पे लेकर निकले हैं
तुम क्या हम से टकराओगे
कितनी आवाज़...

गुलशन ये बना कुर्बानी से
रंगों से भरी जवानी से
मिट्टी में मिला है खूं सबका
यह रंग मिटा ना पाओगे
कितनी आवाज़...