ये दर्द नया नहीं
सदियों पहले भी था
और आज भी है
सिर पर गठरी उठाए
पीठ पर बच्चा लटकाए
ये तस्वीर
नई नहीं
सदियों पहले भी थी
जब फैक्ट्रियां नहीं थीं
ये अधनंगे बदन
तब भी थे
ये गुमनाम मौतें
ये बिलखती रूहें
तब भी थीं
ये हिक़ारत भरी नज़रें
ये दमन की लालसा
ये आबरू के सौदे
ये पर्दापोशी के मजमे
तब भी थे
कौड़ी कौड़ी को
लाचार हाथ
जुल्म सहते जिस्म
तब भी थे
भूख की तड़प
और रोटी की सियासत
तब भी थी
कबीलों से राजशाही
राजशाही से ग़ुलामी
और ग़ुलामी से लोकशाही
इस लंबे सफ़र में
दर्द की इंतहा
तब भी थी
और आज भी है
...लेकिन ये उस वक़्त नहीं था
जब हम सभ्य नहीं थे
अफसोस!! हम सभ्य क्यों हुए?
Thursday, May 28, 2020
मज़दूर का दर्द
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