अब नहीं आते ज़ुबां पर
ज़हन में भी नहीं
बहुत ज़ोर देकर
जब सोचता हूं
तो उलझ जाता हूं
फिर उन्हीं शब्दों में
ये कैसी बेबसी है
कैसी लाचारी है
कोई अज्ञात भय हो रहा हावी है
कभी लगता है...
शब्द तो बहुत हैं
शायद, हिम्मत नहीं है
अपने ही शब्दों को
जब रखता हूं सामने
तो डरने लगता हूं
भागता हूं हालात से
कभी लगता है...
शब्द तो बहुत हैं
पर आदत हो गई है
चुप रहने की
चुप कराने वालों के आगे
आत्मसमर्पण करने की
आंखें मूंद लेने की
दमन का यह मूक समर्थन
चुभता है अंदर तक
ज़ुबां ख़ामोश रहती है
क्योंकि शब्द गुम हैं...