Monday, May 23, 2022

भीड़तंत्र

भीड़ का न्याय
तराजू से नहीं 
तलवार से होता है
भीड़ बनती है 
भीड़ बनाई जाती है
गढ़ी जाती है
इसे भेड़ बनाकर 
सिर झुका कर 
चलाना ही तंत्र है
भीड़ सवाल नहीं करती
यह शोर करती है 
शोर में दब जाते हैं 
सवाल भी, जवाब भी
यह जब तलवार लेकर
चलती है सड़कों पर
बदहवास लाश सी लगती है
भीड़ सोचती नहीं
बस बढ़ती चली जाती है
अनजान मंजिल की ओर
छद्म से रची हुई दुनिया की तरफ
यह नहीं जानती
इस में कितनी ताकत है
कितनी हिम्मत है
दुनिया बदलने की
लेकिन यह भेड़ बनकर
बढ़ती रहती है लक्ष्यहीन
और इक दिन 
अंधे कुएं में गिरकर 
खामोश हो जाती है
सदा के लिए...

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