Saturday, December 24, 2016

बात

बात से बनती नहीं बातें, मगर कुछ बात कर
चुप रहेगा कब तलक, अब तोड़ चुप्पी बात कर

है अंधेरा रास्तों में, खो न जाना तू कहीं
रात अंधियारी सही, तू रोशनी की बात कर

राह में तूफां खड़े हैं, खौफ़ दिल में भर रहे
मुश्किलों की है घड़ी, तू हौसलों की बात कर

ये ज़माना रोकता है, पर न तू रुकना कभी
वो डुबोएंगे तुझे, तू साहिलों की बात कर

है ज़मीं सूखी हुई, तू जा कहीँ फसलें उगा
बारिशें चुप हैं, मगर तू बादलों की बात कर

मंज़िलें मुश्किल बड़ी हैं, पर न घबराना कभी
रास्तों पर चल अकेला, काफिलों की बात कर

ये मकां ऊंचे बहुत हैं, ये कभी झुकते नहीं
फाज़िलों की वो सुनें, तू जाहिलों की बात कर

Thursday, October 20, 2016

रास्ते

रास्ते खो गए हैं राहों में
मंज़िलें ना मिलेंगी अब हमको
कोई उम्मीद क्यों भला छोड़ें..

ज़िंदगी दे रही है आवाज़ें
आओ सुन लें कि कोई बात बने
कोई उलझन सुलझ सके शायद..

आईने टूट गए हैं घर के
अपना चेहरा भी नहीं दिखता यहां
एक साथी था वो भी रूठ गया.
.

Thursday, September 8, 2016

ब्लू शर्ट

उसे ब्लू कलर बहुत पसंद था
हमेशा कहती थी
ब्लू शर्ट पहना करो
तुम पर खूब फबती है
और मैं?
मैं आजिज़ आ चुका था अब ब्लू कलर से
अच्छा-खासा कलेक्शन हो गया था मेरे पास
इक दिन अचानक...
कोई चार साल बाद
उसका मैसेज आया मोबाइल पर
तुम्हारे ही शहर में हूं..
मिलने भी नहीं आओगे?
और मैं?
मैं फिर अलमारी में पड़ी
एक पुरानी ब्लू कलर की शर्ट पहन कर
उससे मिलने चल दिया....

Sunday, September 4, 2016

सन्नाटे

मुर्दा घरों के सन्नाटे को शांति नहीं कहते
अंदर ही अंदर घुट जाने को संयम नहीं कहते
चट्टानों से फूट कर बहना पड़ता है..
जमे हुए पानी को झरना नहीं कहते

लिबास ओढ़कर नाचतीं लाशें प्रतिकार नहीं करतीं
चुप तो मीठी मौत है, चुप चीत्कार नहीं करती
पहाड़ों के आगे गला फाड़ चिल्लाना पड़ता है..
ठंडी आहें तो बस आहें हैं, इन्हें आग नहीं कहते

ये जो बारूद फटता है न, इसमें खुशबू नहीं होती
गंध होती है तेज सी, जो पसंद नहीं होती
महक जाने के लिए तो फूल बनना पड़ता है..
कीकर के दरख्तों को गुलमोहर नहीं कहते

बदहवास सड़कें कभी थकती नहीं हैं
आड़ी-तिरछी पगडंडियां कभी टूटती नहीं हैं
बस ताउम्र चलते ही रहना पड़ता है..
बेजान खड़े बुतों को इन्सान नहीं कहते।।

हमारे अंदर का अल्बर्ट पिंटो

क्रोध यूं तो कोई ठीक बात नहीं
गांधी और कृष्ण के देश में तो बिल्कुल भी नहीं
तो क्या बेहतर है?
विष पीकर नीलकंठ हो जाना?
लेकिन क्रोध तो गांधी और कृष्ण का भी दब न सका
शिव का भी नहीं
क्रोध को पी जाने से बेहतर है
इसे दिशा दे जाना
अल्बर्ट पिंटो बन जाने के लिए...

Friday, August 5, 2016

सहर

यूं तो हर रोज़ सहर होती है
यूं तो हर रोज़ सहर होती है
आशाएं बंधती हैं, टूटती हैं
कांधे पर हल रखकर
खेत में पांव रखती हैं उम्मीदें
आकाश से निकलती है एक टुकड़ा धूप
और तभी पानी बन बरस पड़ती हैं बलाएं
यूं तो हर रोज़ सहर होती है...
ज़िंदगी चलती है कुछ कदम
गिरती है, फिर संभलती है
कभी थक के बैठ जाती है
जवाब नहीं मिलते, लेकिन सवाल पूछती है
सदाएं आती हैं माज़ी से, लेकिन टकरा के लौट जाती हैं
यूं तो हर रोज़ सहर होती है...
नींद खुल जाती है अल सुबह
आंखें ढूंढती हैं कुछ, अंगुलियां टटोलती हैं
अनाज के खाली डिब्बे को खंगालती हैं
और फिर फैक्टरियों की घंटियां बज उठती हैं
मशीनों की आवाज़ में दब जाती हैं विरोध की आवाज़ें
यूं तो हर रोज़ सहर होती है...

Friday, July 8, 2016

ख़्वाब-3

तितलियों से ख़्वाब हैं
रंग-बिरंगे से
थोड़े नाज़ुक, थोड़े चंचल
हवा के थपेड़ों से भटक जाते हैं
मगर आंखों में तैरते रहते हैँ...
चटख रंग लिए
कभी उड़ जाते हैं मीलों
खुले गगन में
अपनी पहुंच से भी कहीं दूर
फिर नीला नहीं रह जाता यह आसमान
भर जाता है अनगिनत रंगों से
कभी फूलों पर मंडराते हैं
मोह पाल बैठ जाते हैं ज़िन्दगी का
पर फूलों सी कहां होती है ज़िन्दगी
फिर भी हर फूल का रस पीते हैं ख़्वाब
तितलियों से ख़्वाब
थोड़े नाज़ुक थोड़े चंचल।

लोग

कैसे हैं ये लोग
सूखी शाख़ों पर सजे-धजे लोग
बात-बात पे अंगुलियां उठाते लोग
बेवजह घूरते-डराते लोग
कभी रास्ता रोकते, कभी धकियाते लोग
मचान पे चढ़ कर कंदीलें बुझाते लोग
बरसाती नागफनी जैसे उगे लोग
छोटी-छोटी बातों का बतंगड़ बनाते लोग
बिना जड़ों के उथले से लोग
फूहड़ से जुमलों पर खिखियाते लोग
हौसला गिराते, साजिशें बुनते लोग
रूढ़ियों से बंधे लोग
कितने कमज़ोर हैं ये लोग
खोखले और बेग़ैरत से लोग...

Thursday, May 26, 2016

बर्फ की दीवारें

काश कि सरहदों पर होतीं बर्फ की दीवारें
जो सियासी बयानों की गर्मी से पिघल जाया करतीं
सरहदों के दोनों ओर फैल जाता इनका ठंडा पानी
फिर कोई फूल खिलता इस पानी से नम हुई मिट्टी में
हर तरफ बिखर जाती जिसकी खुशबू
कंटीली तारों से छिले बिना कितना खूबसूरत और महफूज़ होता वो फूल
काश कि सरहदों पर होतीं बर्फ की दीवारें....

Monday, May 16, 2016

रहगुज़र

ले चलो मुझे ले चलो
उस रहगुज़र पे ले चलो
हाथों में सबके हाथ हों
ऐसे सफ़र पे ले चलो

जहां भूख की दुनिया न हो
जहां लूट के किस्से न हों
गलियों में मिलता हो सुकूं
ऐसी डगर पे ले चलो

मज़हब की दीवारें न हों
और दीन का पर्दा न हो
सजदे से मिलता हो ख़ुदा
मुझे ऐसे दर पे ले चलो

जहां सोच पर पहरा न हो
जहां ख़्वाब पर बंदिश न हो
जहां क़ैद में हों रूढ़ियां
उस कारागर पे ले चलो

जहां कोख में न क़त्ल हों
चेहरे पे न तेज़ाब हो
जहां मुस्कुराएं बेटियां
किसी ऐसे घर पे ले चलो

मज़दूर न मजबूर हों
और खेतिहर खुशहाल हों
जहां शाख़ पे न लाश हो
ऐसे शजर पे ले चलो

पगडंडियों को छोड़ कर
सड़कों पे न भटके कोई
जहां गांव जैसी बात हो
ऐसे शहर पे ले चलो

जहां रात अंधियारी न हो
जहां दोपहर तपती न हो
जहां शाम को सूरज उगे
ऐसी सहर पे ले चलो

ले चलो मुझे ले चलो
उस रहगुज़र पे ले चलो...

Sunday, April 3, 2016

भूख

एक रात जो हुआ भूख से सामना
भूख बोली, आके मेरा हाथ ज़रा थामना
मर रही हूं भूख से और प्यास से बेहाल हूं
बहुत नाउम्मीद हूं और हर तरह निढाल हूं
जिसे देखो-हर कोई बस मुझे है कोसता
मेरी हालत क्या है, मुझसे नहीं कोई पूछता
मैं हुआ हैरान, पूछा-कैसे ये हालत हुई
तुम तो थी हमराह सबकी, अब अकेली क्यों हुई
इतना सुनकर भूख की आंखों में आंसू आ गए
और हम भरपेट सब, ये बात सुन शरमा गए
भूख बोली-मैं तो टुकड़ों के लिए मोहताज हूं
शाहज़ादी मैं गरीबों की मगर बेताज हूं
अनाज कितना सड़ गया, मंडी में अबके साल भी
मेरे हिस्से में मगर आया कमबख्त अकाल ही
कल सुना किसान कितने ख़ुदकुशी कर मर गए
और मरते-मरते सब इल्ज़ाम मुझ पर धर गए
मर गए जो लोग ऐसे, कितने वे खुदगर्ज़ थे
क्या हुआ जो सर पे उनके सैकड़ों के कर्ज़ थे
मातम पे आया नेता और लंबा भाषण पढ़ गया
कह रहा था देश का अब ग्रोथ रेट है बढ़ गया
भुखमरी की बात न करना कभी तुम भूल कर
क्या हुआ जो कायरों ने जान दे दी झूल कर
हम तो अपने देश को अब चांद पर पहुंचाएंगे
मर गए जो याद में उनकी महल बनवाएंगे
भूख से मरता है कोई? भूख तो वरदान है
ये बेचारी तो यूं ही बस मुफ़्त में बदनाम है
भूख की ये बात सुनकर मैं तो बस चकरा गया
और अपनी बेबसी पे सर झुका शरमा गया।

लहू

लहू उबल रहा है,
लहू पिघल रहा है
है कैसी छटपटाहट
मन खुद को छल रहा है

हैं मुट्ठियों में शोले
आंखों में आग सी है
दिल का गुबार है ये
सदियों से पल रहा है

ये कैसी बंदिशें हैं
ये कैसी बेड़ियां हैं
रूहें सुलग रहीं हैं
और जिस्म जल रहा है

ये खेत की मेढ़ों पर
किसने उगाईं सड़कें
गांव हरे-भरे को
शहर निगल रहा है

लाचार से खड़े हैं
आकाश के फ़रिश्ते
किसान का जमीं पे
दम निकल रहा है

सुनहरी धूप को फिर
बादल ने ढक लिया है
उम्मीद का सूरज फिर
पश्चिम में ढल रहा है

Wednesday, January 13, 2016

तीन आवाज़ें

1. पहली आवाज़:-
अरे! ये बच्चा दूध क्यों नहीं पी रहा?
इसे बोरी वाले बाबा का भय दिखाओ
न माने तो अंधेरे कमरे में ले जाओ
दरवाज़े के पीछे छिपे भूत के दर्शन कराओ
जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है, मनमानी कर रहा है
इस पर कुछ बंदिशें तो लगाओ
इसका घूमना-फिरना, हंसना-बोलना बंद कराओ 
कुछ अच्छी बातें तोते की तरह रटाओ
ज़िद्दी है यह, नासमझ है, नादां है
इसको दुनिया का डर नहीं
तो इसे दुनिया के खतरों से डराओ
सामाजिक बंधनों का भय दिखाओ
ये समाज भेड़ों का रेवड़ है-ये बात ठीक से समझाओ
झुंड से बाहर भागे तो लाठी का वार चलाओ
और खदेड़ कर फिर इसे झुंड में घुसाओ
बिना सवाल किए सिर झुका कर चलना सिखाओ
2. दूसरी आवाज़:-
अब ये कुछ हमारी तरह बोलने-उठने लगा है
लगता है कुछ-कुछ दुनिया को समझने लगा है
पर ये इतना दब्बू क्यों है?
कुछ बोलता क्यों नहीं
हिरणों की तरह कूदता क्यों नहीं
फूलों की तरह महकता क्यों नहीं
कोई तो जुगत लगाओ
इसे पिंजरे के अंदर उड़ना सिखाओ
बाहर खुला आसमान है, ये चीख-चीख कर बताओ
जिम्मेदारी का एहसास कराओ
हो सके तो काम का बोझ बढ़ाओ
बचपन में तो बड़ा शेर था
अब भेड़ क्यों हो गया?
लगता है जिन्नात का साया है
तो कोई गाय को पेड़ा खिलाओ
अंगुलियों में अंगूठियां पहनाओ
वरना इससे उम्मीद करना बेमानी है
भला नाकारों की भी कोई ज़िंदगानी है
3. तीसरी आवाज़:-
बस करो अब! बंद करो ये शोर
बात को बेवजह मत बढ़ाओ
पंख काट कर कहते हो, चिड़ियों के संग बाज़ लड़ाओ
अब रेंगना अच्छा लगता है मुझे
आप ही तो कहते थे, बाहर की दुनिया में बहुत खतरे हैं
झुंड के साथ चला करो
अब मैं सुरक्षित हूं यहां भेड़ों के झुंड में
एकदम सुरक्षित!!!
एकदम सुरक्षित!!!
               
  

Tuesday, January 12, 2016

इम्तिहां

ज़िन्दगी के अभी इम्तिहां हैं बहुत
हौसलों के मगर आसमां हैं बहुत

क्या हुआ जो हवा ने बदल दी दिशा
कश्तियों के लिए बादबां हैं बहुत

आंधियों से चमन जो उजड़ था गया
उस चमन के लिए बागबां हैं बहुत

सरहदों पे कहीं हैं चलीं गोलियां
इस वतन के यहां पासबां हैं बहुत

क्या हुआ जो सितारा गिरा टूटकर
इस फ़लक में मगर कहकशां हैं बहुत

धूप खिलती नहीं इस शहर में कहीं
गांव सबके मगर खुशनुमा हैं बहुत

आदमी आदमी से परेशान है
मतलबी हैं बड़े खुदनुमा हैं बहुत

हर किसी से शिकायत व शिकवे मगर
दूसरों के लिए बेज़ुबां हैं बहुत

दूरियां पाटने मैं चला कुछ कदम
फासले ये मगर दरमियां हैं बहुत