Sunday, April 3, 2016

लहू

लहू उबल रहा है,
लहू पिघल रहा है
है कैसी छटपटाहट
मन खुद को छल रहा है

हैं मुट्ठियों में शोले
आंखों में आग सी है
दिल का गुबार है ये
सदियों से पल रहा है

ये कैसी बंदिशें हैं
ये कैसी बेड़ियां हैं
रूहें सुलग रहीं हैं
और जिस्म जल रहा है

ये खेत की मेढ़ों पर
किसने उगाईं सड़कें
गांव हरे-भरे को
शहर निगल रहा है

लाचार से खड़े हैं
आकाश के फ़रिश्ते
किसान का जमीं पे
दम निकल रहा है

सुनहरी धूप को फिर
बादल ने ढक लिया है
उम्मीद का सूरज फिर
पश्चिम में ढल रहा है

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