Sunday, April 3, 2016

भूख

एक रात जो हुआ भूख से सामना
भूख बोली, आके मेरा हाथ ज़रा थामना
मर रही हूं भूख से और प्यास से बेहाल हूं
बहुत नाउम्मीद हूं और हर तरह निढाल हूं
जिसे देखो-हर कोई बस मुझे है कोसता
मेरी हालत क्या है, मुझसे नहीं कोई पूछता
मैं हुआ हैरान, पूछा-कैसे ये हालत हुई
तुम तो थी हमराह सबकी, अब अकेली क्यों हुई
इतना सुनकर भूख की आंखों में आंसू आ गए
और हम भरपेट सब, ये बात सुन शरमा गए
भूख बोली-मैं तो टुकड़ों के लिए मोहताज हूं
शाहज़ादी मैं गरीबों की मगर बेताज हूं
अनाज कितना सड़ गया, मंडी में अबके साल भी
मेरे हिस्से में मगर आया कमबख्त अकाल ही
कल सुना किसान कितने ख़ुदकुशी कर मर गए
और मरते-मरते सब इल्ज़ाम मुझ पर धर गए
मर गए जो लोग ऐसे, कितने वे खुदगर्ज़ थे
क्या हुआ जो सर पे उनके सैकड़ों के कर्ज़ थे
मातम पे आया नेता और लंबा भाषण पढ़ गया
कह रहा था देश का अब ग्रोथ रेट है बढ़ गया
भुखमरी की बात न करना कभी तुम भूल कर
क्या हुआ जो कायरों ने जान दे दी झूल कर
हम तो अपने देश को अब चांद पर पहुंचाएंगे
मर गए जो याद में उनकी महल बनवाएंगे
भूख से मरता है कोई? भूख तो वरदान है
ये बेचारी तो यूं ही बस मुफ़्त में बदनाम है
भूख की ये बात सुनकर मैं तो बस चकरा गया
और अपनी बेबसी पे सर झुका शरमा गया।

लहू

लहू उबल रहा है,
लहू पिघल रहा है
है कैसी छटपटाहट
मन खुद को छल रहा है

हैं मुट्ठियों में शोले
आंखों में आग सी है
दिल का गुबार है ये
सदियों से पल रहा है

ये कैसी बंदिशें हैं
ये कैसी बेड़ियां हैं
रूहें सुलग रहीं हैं
और जिस्म जल रहा है

ये खेत की मेढ़ों पर
किसने उगाईं सड़कें
गांव हरे-भरे को
शहर निगल रहा है

लाचार से खड़े हैं
आकाश के फ़रिश्ते
किसान का जमीं पे
दम निकल रहा है

सुनहरी धूप को फिर
बादल ने ढक लिया है
उम्मीद का सूरज फिर
पश्चिम में ढल रहा है