Friday, December 22, 2023

यह इमरोज-अमृता की अनोखी प्रेम कहानी का अंत नहीं.. नई शुरुआत है

नितिन उपमन्यु
चंडीगढ़। जाने-माने कलाकार और कवि इमरोज के निधन के साथ ही एक अनोखी प्रेम कहानी फिर जीवंत हो उठी है। दरअसल, इमरोज का निधन इस कहानी का अंत नहीं, ब​ल्कि नई शुरुआत है। एक ऐसी कहानी, जिसने दशकों तक साहित्य और कला प्रेमियों को मदहोश किए रखा। जिसने प्रेम की नई परिभाषा गढ़ी। जिसने दुनिया को बताया कि प्रेम सिर्फ विवाह बंधन में बंधना ही नहीं, ब​ल्कि प्रेम के आकाश में उन्मुक्त होकर उड़ना भी है।
ख्यात पंजाबी कवियत्री अमृता प्रीतम और इमरोज अपने अनूठे रिश्ते के कारण हमेशा चर्चा में रहे और अब जबकि दोनों इस जहान में नहीं हैं, तब भी चर्चा में हैं। दोनों ने कभी शादी नहीं की, लेकिन 40 साल तक लिव-इन रिलेशनशिप में रहे। इमरोज का जन्‍म 26 जनवरी, 1926 को अविभाजित भारत के लायलपुर (अब पाकिस्तान में) हुआ था। उनका असली नाम इंद्रजीत सिंह था, लेकिन वे इमरोज नाम से ही जाने गए। अमृता उन्हें 'जीत' कहती थीं।
2005 में अमृता के निधन के बावजूद इमरोज ने उन्हें अपनी स्मृतियों में जीवित रखा। इमरोज कहते थे 'वो यहीं है, घर पर ही है, कहीं नहीं गई। यहीं, इन दीवारों के भीतर, वह रहती है, कभी नहीं जाती।' इन भावनाओं को इमरोज ने 97 वर्ष की उम्र तक बनाए रखा। अपनी एक कविता में इमरोज कहते हैं- जीने लगो, तो करना फूल जिंदगी के हवाले... जाने लगो, तो करना बीज धरती के हवाले...। अपने निधन से पहले इमरोज प्यार का ऐसा बीज धरती के हवाले कर गए हैं, जो आने वाले कई वर्षों तक फूल बनकर महकता रहेगा।
'अमृता एंड इमरोज- ए लव स्टोरी' किताब की ले​खिका उमा त्रिलोक इमरोज व अमृता की नजदीकी दोस्त रही हैं। उमा कहती हैं कि अमृता और इमरोज के रिश्ते में आजादी बहुत है। बहुत कम लोगों को पता है कि वो अलग-अलग कमरों में रहते थे एक ही घर में और जब इसका जिक्र होता था तो इमरोज कहते थे कि एक-दूसरे की खुशबू तो आती है। ऐसा जोड़ा मैंने बहुत कम देखा है कि एक दूसरे पर इतनी निर्भरता है, लेकिन कोई दावा नहीं है।

मैं तैनूं फेर मिलांगी...
अमृता प्रीतम भले ही 40 साल तक इमरोज के साथ लिव इन में रहीं, लेकिन यह जन्म उन्होंने शायर साहिर लु​धियानवी नाम कर दिया था। वह हमेशा उनसे ही मोहब्बत करती रहीं। इमरोज के लिए उन्होंने कोई और जन्म तय कर रखा था। अपनी कालजयी रचना 'मैं तैनूं फेर मिलांगी' में अमृता लिखती हैं... मैं तुझे फिर मिलूंगी, कहां-कैसे पता नहीं... शायद तेरे कल्पनाओं की प्रेरणा बन, तेरे कैनवास पर उतरूंगी... या तेरे कैनवास पर, एक रहस्यमयी लकीर बन खामोश से तुझे देखती रहूंगी... मैं तुझे फिर मिलूंगी, कहां-कैसे पता नहीं। अपनी इस रचना में अमृता ने जो वादा किया था, इमरोज अपने जीवन के बाद उसके पूरा होने का विश्वास लिए इस दुनिया से विदा हो गए।

वो खूबसूरत दिन..
दोनों की प्रेम कहानी की शुरुआत पंजाब के पठानकोट से हुई थी, जो पंजाब की गलियों से निकल कर दिल्ली-मुंबई से होते हुए देश-विदेश तक पहुंची। अमृता के प्रति इमरोज के प्रेम को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया। खराब स्वास्थ्य में भी इमरोज ने अमृता की यादों को संजोया, उनके रेखाचित्रों और तस्वीरों से घिरे रहे और कविता व कला के माध्यम से उनकी प्रेम कहानी को अमर बनाया। एक कलाकार से कवि बनने के बाद इमरोज के शब्द अमृता के प्रति उनके अटूट स्नेह को दर्शाते हैं। इमरोज ने लिखा था- तेरे साथ जिए वो सब खूबसूरत दिन रात, अब अपने आप मेरी कविताएं बनते जा रहे हैं...। अमृता के अस्वस्थ रहने के बाद इमरोज ने कविताएं लिखना शुरू किया और उनकी मृत्यु के बाद भी उन्होंने उन्हें समर्पित कई कविताएं लिखीं। उनके चार काव्य संग्रह प्रका​शित हुए, जिनमें सभी कविताएं अमृता को समर्पित थीं। इनमें 'जश्न जारी है', 'मनचाहा ही रिश्ता' और 'रंग तेरे मेरे' शामिल हैं।

रिश्ते की खुशबू...
पंजाबी कहानीकार व कवि जसबीर सिंह राणा कहते हैं, दोनों का रिश्ता कला, प्यार, बराबरी और आपसी समझ वाला था, जिसकी खुशबू आज भी महसूस की जा सकती है। दोनों ने अपना ज्यादातर समय दिल्ली के हौज खास इलाके में गुजारा। अखबार के माध्यम से दोनों संपर्क में आए। उनका लिखा साहित्य पंजाब में आने वाली पीढि़यों को लाइट हाउस की तरह रोशनी देता रहेगा। अमृतसर के खालसा कॉलेज के प्रो. आत्म रंधावा कहते हैं कि नागमणि पत्रिका अमृता प्रीतम के निधन तक 35 वर्षों से अधिक समय तक प्रकाशित होती रही और इमरोज इसके अंतिम अंक तक एक कलाकार के रूप में इससे जुड़े रहे।

Friday, April 21, 2023

मां का जन्मदिन

मां का एक और जन्मदिन बीत गया 
चुपचाप, ख़ामोश सा 
सब के जन्मदिन से बिल्कुल अलग 

सुबह-सुबह कोई नहीं उठा 
न आंगन में लिपाई हुई
न पूजा की थाली सजी

हलवे के लिए बादाम भिगोने थे रात में 
लेकिन याद ही नहीं रहा किसी को

मीलों दूर से बस एक फोन आया 
कैसी हो मां...? 
कुछ खास नहीं बनाया इस बार?
जवाब मिला- तुम आओगे 
तो बनाऊंगी कुछ... 

मां के चेहरे की मुस्कान 
मुझे मीलों दूर से साफ दिख गई
हमेशा की तरह... शफ़्फ़ाक!!!

इंसाफ

अभी-अभी आई इक ताज़ा ख़बर
कुछ दंगाई, बलात्कारी
रिहा हो गए... बाइज़्ज़त!!

जश्न मना, ढोल बजा 
गले हारों से लद गए 
निर्लज्ज चेहरे खिल गए 

न्याय की देवी निहारती रही 
बेबस होकर यह दृश्य 

न्याय के देवता करते रहे कागज़ काले 
काली अंधेरी कोठरी में घुट घट रोता रहा इंसाफ 

न्याय की यह नई परिभाषा 
बहुत भयानक है 
बहुत भयानक...

इक रोज़...

इक रोज चलूंगा यूं ही
लंबी सुनसान सड़क पर
कुछ कदम नंगे पांव

फिर यूं ही चढ़ जाऊंगा
इक बड़ी चट्टान पर
हवा में हाथ खोल चिल्लाऊंगा

कुछ पल बैठ जाऊंगा
जंगल की पगडंडी पर 
और ढलान पर लेटूंगा कुछ देर 

बारिश में भीगते हुए
गाऊंगा कोई विरह गीत
इक रोज...

खेत की मेढ़ पर बैठकर 
बर्फ से ढकी चोटियां निहारूंगा

गली में बच्चों संग खेलूंगा 
कोई पुराना खेल

मां की गोद में सिर रख
सुनूंगा कोई अधूरी कहानी

पिता की किताब को छाती पर रख
सो जाऊंगा कुछ देर

तुम देखना!
मैं करूंगा ये सब
इक रोज़...

Saturday, October 22, 2022

शब्द

शब्द गुम हैं
अब नहीं आते ज़ुबां पर
ज़हन में भी नहीं
बहुत ज़ोर देकर
जब सोचता हूं
तो उलझ जाता हूं
फिर उन्हीं शब्दों में
ये कैसी बेबसी है
कैसी लाचारी है
कोई अज्ञात भय हो रहा हावी है
कभी लगता है...
शब्द तो बहुत हैं
शायद, हिम्मत नहीं है
अपने ही शब्दों को
जब रखता हूं सामने
तो डरने लगता हूं
भागता हूं हालात से
कभी लगता है...
शब्द तो बहुत हैं
पर आदत हो गई है
चुप रहने की
चुप कराने वालों के आगे
आत्मसमर्पण करने की
आंखें मूंद लेने की
दमन का यह मूक समर्थन
चुभता है अंदर तक
ज़ुबां ख़ामोश रहती है
क्योंकि शब्द गुम हैं...

Sunday, September 25, 2022

सितारा

छिपा घने बादल में 
जो एक सितारा था

जिसकी एक झलक से
मिटता अंधियारा था

थी उसको इक आस यही
जीवन में इक बार कभी

जब बदल छंट जाएगा
अंधियारा हट जाएगा

उसके उजियारे से सारा
जग उजियारा हो जाएगा

किंतु भाग्य चक्र कुछ ऐसा
जीवन हुआ मरण के जैसा

ग्रहण काल ने ऐसा घेरा
शंकाओं ने डाला डेरा

होने लगी चमक भी धूमिल
जीवन लगने लगा ये बोझिल

किंतु आस रही जीवन में
फूटा अंकुर क्षण भर मन में

जो हार गया मैं इस बादल से
झुलस गया गर दावानल से

कितने जीवन मर जाएंगे
कितने दीपक बुझ जाएंगे

तेज सूर्य सा अंदर भर के
वेग वायु सा संचित करके

उसने बादल को पिघलाया
चमकी श्वेत धवल सी काया

छिपा घने बादल में था जो
चहुंओर चमक रहा था बस वो...
चहुंओर चमक रहा था बस वो...


Monday, May 23, 2022

भीड़तंत्र

भीड़ का न्याय
तराजू से नहीं 
तलवार से होता है
भीड़ बनती है 
भीड़ बनाई जाती है
गढ़ी जाती है
इसे भेड़ बनाकर 
सिर झुका कर 
चलाना ही तंत्र है
भीड़ सवाल नहीं करती
यह शोर करती है 
शोर में दब जाते हैं 
सवाल भी, जवाब भी
यह जब तलवार लेकर
चलती है सड़कों पर
बदहवास लाश सी लगती है
भीड़ सोचती नहीं
बस बढ़ती चली जाती है
अनजान मंजिल की ओर
छद्म से रची हुई दुनिया की तरफ
यह नहीं जानती
इस में कितनी ताकत है
कितनी हिम्मत है
दुनिया बदलने की
लेकिन यह भेड़ बनकर
बढ़ती रहती है लक्ष्यहीन
और इक दिन 
अंधे कुएं में गिरकर 
खामोश हो जाती है
सदा के लिए...