इक रोज चलूंगा यूं ही
लंबी सुनसान सड़क पर
कुछ कदम नंगे पांव
फिर यूं ही चढ़ जाऊंगा
इक बड़ी चट्टान पर
हवा में हाथ खोल चिल्लाऊंगा
कुछ पल बैठ जाऊंगा
जंगल की पगडंडी पर
और ढलान पर लेटूंगा कुछ देर
बारिश में भीगते हुए
गाऊंगा कोई विरह गीत
इक रोज...
खेत की मेढ़ पर बैठकर
बर्फ से ढकी चोटियां निहारूंगा
गली में बच्चों संग खेलूंगा
कोई पुराना खेल
मां की गोद में सिर रख
सुनूंगा कोई अधूरी कहानी
पिता की किताब को छाती पर रख
सो जाऊंगा कुछ देर
तुम देखना!
मैं करूंगा ये सब
इक रोज़...
बहुत उम्दा नितिन सर
ReplyDeleteशुक्रिया जी
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