Tuesday, December 16, 2014

पेशावर आतंकी हमले से व्यथित होकर

न अल्लाह ही आया, ना राम ही
मासूम मर गए सरेआम ही।

मज़ारों पे चढ़ती रहीं चादरें
मेरे हिस्से आया कत्लेआम ही।

पीर-ओ-पैगंबर कहां खो गए
आंगन में दिखता है श्मशान ही।

वो गिनता रहा लाशों के ढेर बस
मैं गिनता रहा रोजे-रमज़ान ही।

उगलती जहर थी, क्यों खामोश है
नहीं लपलपाती अब वो जुबान ही।

हरे-भगवे रंगों में बांटा जो तुमने
रंगों ने रखा परेशान ही।

मां का है आंचल भी खूं से सना
मस्जिद में मारी गई अजान ही।