न अल्लाह ही आया, ना राम ही
मासूम मर गए सरेआम ही।
मज़ारों पे चढ़ती रहीं चादरें
मेरे हिस्से आया कत्लेआम ही।
पीर-ओ-पैगंबर कहां खो गए
आंगन में दिखता है श्मशान ही।
वो गिनता रहा लाशों के ढेर बस
मैं गिनता रहा रोजे-रमज़ान ही।
उगलती जहर थी, क्यों खामोश है
नहीं लपलपाती अब वो जुबान ही।
हरे-भगवे रंगों में बांटा जो तुमने
रंगों ने रखा परेशान ही।
मां का है आंचल भी खूं से सना
मस्जिद में मारी गई अजान ही।