Sunday, September 4, 2016

सन्नाटे

मुर्दा घरों के सन्नाटे को शांति नहीं कहते
अंदर ही अंदर घुट जाने को संयम नहीं कहते
चट्टानों से फूट कर बहना पड़ता है..
जमे हुए पानी को झरना नहीं कहते

लिबास ओढ़कर नाचतीं लाशें प्रतिकार नहीं करतीं
चुप तो मीठी मौत है, चुप चीत्कार नहीं करती
पहाड़ों के आगे गला फाड़ चिल्लाना पड़ता है..
ठंडी आहें तो बस आहें हैं, इन्हें आग नहीं कहते

ये जो बारूद फटता है न, इसमें खुशबू नहीं होती
गंध होती है तेज सी, जो पसंद नहीं होती
महक जाने के लिए तो फूल बनना पड़ता है..
कीकर के दरख्तों को गुलमोहर नहीं कहते

बदहवास सड़कें कभी थकती नहीं हैं
आड़ी-तिरछी पगडंडियां कभी टूटती नहीं हैं
बस ताउम्र चलते ही रहना पड़ता है..
बेजान खड़े बुतों को इन्सान नहीं कहते।।

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