Friday, July 27, 2018

गुनाह

मुझको मेरा गुनाह बता
हर सुबह खौफ़ भरी
हर रात भयानक स्याह
दिन की रोशनी में तपिश
शाम बदरंग, धूसर जैसी
रिश्तों का क़त्ल रोज़ देखता
अपनी नन्हीं सी आंखों से
ज़िंदगी कैद थी जैसे हाथों में
कंचों से भरी मुट्ठी भींच लेता
और वो बिखर जाते लम्हों की तरह
समेटने की कोशिश में अक्सर
छिल जाती कुहनियां
अब भी हैं गहरे निशां
मुझको मेरा गुनाह बता

गहरे सायों में चलता छिप छिप कर
तुझसे मांगा करता क़तरा क़तरा धूप
मां की रुआंसी आंखों में
सुनाई देते क्रूर प्रहसन
पिता के निश्छल समर्पण पर
वो बिखेरते कुटिल मुस्कान
बेदम पिंडलियों पर बढ़ता बोझ
और रास्ते पर भट्ठी की गर्म राख
झुलसे हुए पांवों में
अब भी हैं निशां
मुझको मेरा गुनाह बता।


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