Saturday, November 1, 2014

क्या नास्तिक होना ‘फैशन’ बन गया है?


ऐसा लग रहा है कि खुद को नास्तिक घोषित करना ‘फैशन’ बन गया है। ठीक उसी तरह, जैसे गांधी को गाली निकालना। मुश्किल चीजों की सबसे मुश्किल बात यही होती है कि वो मुश्किल से समझ में आती हैं। धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे या गांधी जैसे कद वाले इनसान के प्रति राय बनाने से पहले भी यही मुश्किल आड़े आती है। इसके लिए गहरे तुलनात्मक अध्ययन और गहरी समझ की जरूरत होती है। इसलिए, इस झमेले में क्यों पड़ें? खुद को नास्तिक ही घोषित कर दें। जान बची। और दुनिया के सामने आपनी ‘तथाकथित सेक्युलर’ छवि बनाने का सर्टिफिकेट भी खुद ही जारी कर दें।  इससे पहले कि आप मुझे एक ‘रंग विशेष की विचारधार से ग्रसित व्यक्ति’ समझने लगें, मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं धर्म या किसी व्यक्ति के प्रति अपनी राय बनाने से पहले उसके अध्ययन और वैज्ञानिक पहलू को समझने का समर्थक हूं। और शायद होना भी यही चाहिए। भगत सिंह ने खुद को नास्तिक घोषित करने से पहले गहरा अध्ययन किया। जेल में रहकर सभी धर्मों का दर्शन पढ़ा। तब कहीं जाकर उन्होंने अपने नास्तिक होने का तर्क रखा। इसके लिए उन्होंने मौखिक या फेसबुकिया प्रचार नहीं किया, बल्कि किताब ही लिख डाली- ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’। लेकिन इतनी मेहनत कौन करे। हर कोई भगत सिंह जितना समर्पित नहीं हो सकता। वे नास्तिक जरूर थे, लेकिन देश के लिए उनकी आस्था इतनी अटूट थी कि अपने लिए खुद फांसी का फंदा चुना। लेकिन एक ऐसा भी वर्ग है, जो बिना मेहनत किए खुद को नास्तिक घोषित कर अपने आप को भगत सिंह के समकक्ष खड़ा करना चाहता है। यह नास्तिकवाद नहीं हिपोक्रेसी है। भगत सिंह ने भी अपनी किताब में लिखा है कि उन्हें एशियाई दर्शन पढ़ने का वक्त नहीं मिला। मतलब वे अब भी संतुष्ट नहीं थे। संतुष्ट होना भी नहीं चाहिए। तथ्य को तर्क से साबित करना ही आपको विचारवान सिद्ध करता है, न कि तथ्य से पीछा छुड़ाना।

स्वामी विवेकानंद पुरोहितवाद, धार्मिक आडंबरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे। अद्वैत मत के समर्थक व प्रचारक थे। इसके बावजूद वे मूर्ति पूजा के खिलाफ नहीं थे। एकदम विपरीत सोच लगती है। अद्वैत मत को मानने वाला मूर्ति पूजा का विरोधी न हो यह हजम नहीं होता, लेकिन विवेकानंद जानते थे कि निराकार व निर्गुण ईश्वर की उपासना हर किसी के लिए संभव नहीं है। और इस पर जब अज्ञानता का पर्दा हो तो बात और भी जटिल हो जाती है। इसलिए सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपासना के लिए उन्होंने मूर्ति पूजा की गुंजाइश दी। वैसे भी प्रतीक उपासना आदिकाल से होती रही है। हम प्रकृति को विभिन्न रूपों में पूजते रहे हैं और आज भी पूज रहे हैं। अज्ञान के कारण शायद यह समझ में आना मुश्किल होगा कि वर्षा कैसे होती है, इसका वैज्ञानिक चक्र क्या है, इसलिए यह मान लिया गया कि वर्षा का भी कोई देवता है और उपासना होने लगी। इसी तरह सूरज, चांद व औषधीय पौधे पूजक हो गए। यही प्रतीक उपासना आगे चल कर मूर्ति पूजा में बदल गई। फिर इसमें आडंबर भी जुड़ता गया और देवता मूर्ति के आकार व मूर्ति की धातु से पहचाने जाने लगे। हिंदी फिल्म ‘ओह माय गॉड’ का एक डायलॉग यहां सटीक बैठता है कि जिस शिरडी सार्इं ने अपनी सारी जिंदगी फकीरी और लोकसेवा में गुजार दी, आज उन्हें सोने-चांदी के मुकुट व रेशम के कपड़े पहनाए जाते हैं। ईश्वर को यह रूप हमने दिया है। इसके लिए कृपया किसी धर्म विशेष को न कोसें। हमारी गलतियों और आडंबर की  वजह के किसी धर्म के दर्शन की छवि बिगड़ रही हो, तो उसके लिए हम जिम्मेदार हैं, धर्म नहीं। नास्तिक होना बुरा नहीं है, लेकिन नास्तिक होकर ईश्वर को ही खारिज कर देना भी सही नहीं है। ईश्वर में आस्था न होना और ईश्वर को ही खारिज कर देना दो अलग बातें हैं। जिसकी ईश्वर  में आस्था ही नहीं है, उसे ईश्वर को खारिज करने का अधिकार नहीं है। ठीक उसी तरह, जैसे आप यदि फुटबॉल नहीं खेलते, लेकिन कहें कि यह तो खेल ही बकवास है, तो आपको यह कहने का हक किसने दिया। आप यूं कह सकते हैं कि फुटबॉल मुझे पसंद नहीं। हां, माराडोना यदि कहें, तो सोचा जा सकता है।  लेकिन आप पहले फुटबॉल खेल कर देखिए। उसके नियमों को जानिए। उसके रोमांच व जुनून को महसूस कीजिए, फिर कहिए। तो सब सुनेंगे।
 
भगवान की मूर्ति पूजा उसके आकार, धातु या चमक-दमक के पैमाने से बाहर होकर की जाए, तो बुरी भी नहीं है। बशर्ते यह विशुद्ध आस्था हो, भगवान की चमचागीरी नहीं। लेकिन, एक वर्ग यदि इसे अंधविश्वास बताकर एक धर्म विशेष के दर्शन को ही खारिज कर दे तो यह असहनीय है। यह वही वर्ग है, जो ईश्वर की मूर्ति पूजा को तो अंधविश्वास बताता है, लेकिन व्यक्ति पूजा के लिए चौक-चौराहों पर इनसानों की हजारों मूर्तियां भी बनवाता है। दुनिया में तानाशाहों और नेताओं की मूर्तियों की संख्या लाखों में है। धर्म में पाखंड, आडंबर व कर्मकांड दर्शन का हिस्सा नहीं है। दोनों अलग हैं, इन्हें अलग ही रहने दें। दर्शन तो सभी धर्मों का एक ही है। मानवता। ‘मेरा धर्म श्रेष्ठ या तेरा धर्म नीच’ इस सोच से बाहर निकल कर यदि सबसे अच्छा ग्रहण करेंगे, तो नास्तिक होने का सर्टिफिकेट जारी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।  शेष रही बात ईश्वर के होने या न होने की, तो यह बहुत बड़ा विषय है। मेरा कोई राय देना हास्यास्पद ही लगेगा। आप ईश्वर को मत मानिए, कोई बात नहीं, लेकिन इतना तो है कि किसी ‘सुपर नेचुरल पावर’ को तो मानते ही होंगे। भले ही वो हाइड्रोन कोलाइडर प्रयोग से सामने आया गॉड पार्टिकल ‘हिग्स बोसोन’ ही क्यों न हो। वैज्ञानिक सोच का यही फायदा है कि आप प्रयोग से तर्क को साबित होता देख सकते हैं। यह दर्शन में भी संभव है, लेकिन उसके लिए जरूरी है- अध्ययन, संयम और घृणा व अहम का त्याग।
: नितिन उपमन्यु

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