Saturday, December 19, 2015

झुग्गियां

212 212 212 212
इक शमां जल रही इस कदर शाम से
तीरगी (1) आ रही है नज़र शाम से

झोंपड़ों में सभी आज खामोश हैं
भूख का शोर है हर तरफ शाम से

चिमनियां बस्तियों की हैं ठंडी पड़ीं
जम गया है कहीं ये धुआं शाम से

जो उड़े लौट कर आएंगे अब नहीं
चुप तभी है खड़ा ये शजर (2) शाम से

नींद ना आएगी आज भी रात भर
दोपहर कर रही साजिशें शाम से

आंख पथरा गई देखते-देखते
कोई' आया नहीं है इधर शाम से

बाद मुद्दत हुआ चांद से सामना
बेज़ुबां सा खड़ा है मगर शाम से

हो अंधेरा बहुत तो खिले धूप भी
बात ये कह रही है सहर (3) शाम से
 

1. तीरगी: अंधेरा 2. शजर: पेड़ 3. सहर: सुबह


 


  

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