Wednesday, December 16, 2015

अटल

नदी की दो धारों सा चल कर
गिरते-पड़ते संभल-संभल कर
सागर मंथन जैसे छल कर
निर्मल, निर्झर, निश्चल कल-कल
सतत, निरंतर बह सकते हो...

सूरज की किरणों से ऊपर
चांद की गहराई को छूकर
देह जलाती निर्मम लू पर
जलती, तपती, बंजर भू पर
शीतल झोंकों सा बह सकते हो...

लक्ष्य न कोई हो जीवन में
जोगी भटक रहा हो वन में
ज्वाला भड़क रही हो तन में
बात दबी हो कोई मन में
खुले  गगन में कह सकते हो...

सीमाओं ने गर बांटा हो
अंदर ही अंदर काटा हो
रिश्तों ने तलछट छांटा हो
और अपनों ने भी डांटा हो
दिल के अंदर रह सकते हो...

संकट ने हो हर पल घेरा
पल-पल में सदियों का फेरा
उस पर जगपरिहास हो तेरा
पर निर्णय अगर अटल हो तेरा
कड़वी बातें सह सकते हो 

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