Wednesday, September 2, 2015

सपनों का शहर

कोई इक अनजान नगर हो
ज़ात की ना पहचान मगर हो

काम से सब पहचानें जाएं
नाम की ना जो भूख अगर हो

मंज़िल अलग-अलग हो बेशक
सबकी लेकिन एक डगर हो

मिलकर बांटें खुशियां लेकिन
सबके ग़म की हमें ख़बर हो

दूजे का कोई हक़ ना मारे
थोड़े में भी हमें सबर हो

छल और कपट न हो जीवन में
सीधा सा आसान सफ़र हो

अस्मत सबकी रहे सलामत
ऐसी उजली पाक़ नज़र हो

धूप लगे तो छांव बने जो
बरगद जैसा कोई शजर हो

धर्म के नाम पे ख़ून बहे ना
हंसती गाती राह गुज़र हो

जवां दिलों के ख़्वाब ना टूटें
ऐसी दिलकश शाम-सहर हो

शहर की ख़ातिर गांव न उजड़े
गांव के जैसा कोई शहर हो

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