Tuesday, October 6, 2015

जीत हार

ज़ार ज़ार रोया, मैं बार-बार रोया
अपनी ही मौत पे, हज़ार बार रोया
बेमौत मर रहा था, मुफ़लिसी में जीकर
चौखट पे अमीरों की, सिर मार-मार रोया
बेरंग ज़िंदगी में, मज़हब ने रंग डाले
लहू का ज़र्रा-ज़र्रा फिर तार-तार रोया
मिलने को ज़िंदगी से, लहरों की तरह उमड़ा
नदी के साहिलों सा, आर-पार रोया
मंज़िल की दौड़ में थे, मौकापरस्त सारे
जीती हुई बाज़ी, मैं हार-हार रोया

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