Saturday, March 21, 2015

अमीर खुसरो और गुलज़ार साहब की अनूठी जुगलबंदी


महानतम कवि (शायर), गायक और संगीतकार
अमीर खुसरो की इस रचना ने मुझे मोहित कर दिया।
फारसी और ब्रज भाषा का ऐसा अनूठा संगम कहीं और
देखने को नहीं मिलता। मिथुन चक्रवर्ती और अनीता राज
की फिल्म  'गुलामी' में गुलज़ार साहब के गाने का मुखड़ा इसी
रचना से प्रेरित है।

जिहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफुल,
दुराये नैना बनाये बतियां
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां

शबां-ए-हिजरां दरज चूं जुल्फ
वा रोज-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं
अंधेरी रतियां

यकायक अज दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फरेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां

चो शमा सोजान, चो जर्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां

बहक्क-ए-रोजे, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां

गुलज़ार साहब के गाने का मुखड़ा इस प्रकार है :-

जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।

कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।

ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।

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