Monday, March 16, 2015

आईना

आईने में अपना चेहरा साफ दिखने लगा है अब
पेशानी के बल और बालों की सफेदी भी
इक धूल का पर्दा था जैसे
अब हट गया है
मिट्टी से लिपटी हुई कुछ बातें
घर की मुंडेर पर टंगी थीं
कल ही उतारी हैं
सर्द हवा काट रही थी
चाल बेढब थी
इक सुकून की चादर तानी है अभी
मद्धम सी रोशनी है उस पार
धुंधला सा दरिया है
जाने की हिम्मत न पूछिए
पतवार थामी है अभी
तरह-तरह की बातें हैं
कुछ अच्छी, कुछ बुरी
इक बात सुनी कल
पांव के नीचे दबे कुछ सूखे पत्ते
सरक गए इधर-उधर
मुखौटे वाले चेहरे देख डर जाता हूं
हर बार धोखा खा जाता हूं इनसे
फिर आईने से दूर भागने लगता हूं
धूल का ये पर्दा और गहरा होता चला जाता है
और गहरा...

No comments:

Post a Comment