Wednesday, May 13, 2015

अलविदा मैराज़

इक दिन अचानक
आ गया शाही फरमान
छोड़ कर चले जाओ यह जमीं
ये रस्ते, ये गलियां, ये घर
छोड़ कर चले जाओ ये पीपल
ये खेतों की मेढ़ें, ये पनघट
छोड़ कर चले जाओ स्कूल की घंटी
मस्जिद की अजान, टेंपो की डुग-डुग
छोड़ कर चले जाओ मेले की फिरकी
रंग-बिरंगी टॉफियां और लट्टू का खेल
छोड़ कर चले जाओ वो चुहलबाजियां
वो अल्हड़ गप्पें, वो बेबाक ठहाके
छोड़ कर चले जाओ अब्बा की ऐनक
अम्मी की साड़ी, भाई की किताबें,
बहन के गानों की कैसेट भी
छोड़ कर चले जाओ पकती हुई फसलों की खुशबू
चक्की की खर्र-खर्र, आंगन में सूखती आम की डलियां
... और मैं चला भी गया
पानी से घिरे टापू पर
फिर भी रहा प्यासा हमेशा
ख़ुश्क जैसे रेत सा
बिखरता भी रहा रेत की ही तरह
बरसों खींचता रहा लकीरें
बंजर जमीन की पेशानी पर
फिर इक दिन एक हवा के झोंके ने
ला पटका उसी जमीन पर
चंद रोज़ लगे, घुलने में, बहने में
फिल घुल ही गया आखिर उसी नम मिट्टी में
जहां से फेंका था तुमने
... आज मेरी कब्र खोद कर देखो
पिंजर बन चुकीं मेरी मुट्ठियों में
अब भी कैद है थोड़ी सी मिट्टी!!!

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