Monday, April 20, 2015

फिर इक दिन...

मत बोल सच्चाई चुभती है...
मत बोल सच्चाई चुभती है... 


प्यासी चिड़िया जब प्यास भुला कर दाना-दाना चुगती है
भूखे बच्चों का तन ढकने को तिनका-तिनका चुनती है
फिर इक दिन... ये सारे बच्चे फुर्र करके उड़ जाते हैं
मर जाते हैं वो सपने सब, जो आंखों में बुनती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

झूठी रौनक बिकती है, इन अंधियारे बाज़ारों में
जिस्मों के सौदे होते हैं, मक्कारों में, लाचारों में
फिर इक दिन... सारे रिश्ते पल भर में मिट जाते हैं
जब नोटों के चौराहे पर, भूखे की इज्जत बिकती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

टहनी पे गाती गोरैया, पिंजरे में डाली जाती है
पिंजरे में फिर आज़ादी की कीमत समझाई जाती है
फिर इक दिन... गोरैया वो घुट-घुट के मर जाती है
रस्मों की ख़ातिर ये दुनिया कुछ ऐसे पंख कतरती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

मंदिर की दीवारों पर भी फूल चढ़ाए जाते हैं
मस्जिद के वीरानों में भी चांद सजाए जाते हैं
फिर इक दिन... ये मंदिर-मस्जिद खंडहर से बन जाते हैं
जब धर्म के ठेकेदारों की कुर्सी खतरे में पड़ती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

मेहनतकश जब खून बहाकर मिट्टी में सोना बोते हैं
तब क्यों उनके भूखे-प्यासे बच्चे सड़कों पर रोते हैं
फिर इक दिन... अख़बारों में क्यों ऐसी ख़बरें आती हैं
खेत के कुएं के ऊपर, वो किसकी लाश लटकती है
मत बोल सच्चाई चुभती है...

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