Sunday, September 14, 2014

लक्ष्य

लक्ष्य था विकट विशाल
किंतु शक्ति का अकाल
क्रूर बेडिय़ों के जाल
और हौसला निढाल,
राह न थी सूझती
आस जैसे टूटती
थी जिंदगी कचोटती
शक्ति ही क्यों है लूटती,
प्रश्न ये अपार थे
शत्रु निराकार थे
झुंड में मक्कार थे
कुंद पड़ते वार थे,
फिर मुट्ठियों को भींच कर
प्राणवायु खींच कर
लहू से भाग्य सींच कर
ज्ञान चक्षु मीच कर,
वो रौंदने निकल पड़ा
था क्रोध में पला-बढ़ा
भृकुटि माथे पर चढ़ा
कभी न झुकने पर अड़ा,
सब दर्प चूर कर दिया
रक्त-कुंड भर दिया
मृत्यु के दर पे धर दिया
क्षमा का किंतु वर दिया,
ललाट फिर दमक उठा
शक्ति-पुंज गमक उठा
शौर्य गीत धमक उठा
सूर्य नव चमक उठा...
सूर्य नव चमक उठा...।

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