Sunday, September 14, 2014

मकतल

इब्तिदा-ए-इश्क है, हरारत न दीजिए
इल्तिज़ा-ए-अश्क है, शरारत न कीजिए
मुस्तकबिल भले न हो मेरी नादान उल्फत का
उफक पे डूबते सूरत से बगावत न कीजिए।
तसव्वुर में मेरे, शादाब की तस्वीर पैहम है
सहरा में पेशो-पस पर तदबीर शबनम है
ख्वाब में जन्नतनवाजी पेश-ए-फितरत ही सही
ताबीर की रोशन चिलमन पे जुल्मत न कीजिए
पशेमां हो चुका हूं गुजिश्ता के तरानों से
बज़्म-ए-मोहब्बत में लुटा नादां दीवानों से
नाशाद दिल की फकत इतनी गुजारिश है
याद जब भी कीजिए, शिद्दत से कीजिए
रहगुज़र की ख्वाहिशें, शाहरारों में मिट गईं
मरमरी रंगीनियां, नजारों में सिमट गईं
मकतल पे गिरा है खूं, इश्क के सरफरोशों का
हयात बख्श दीजिए, कुव्वत तो कीजिए

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