Sunday, September 14, 2014

शायरी का 'यंग मलंग'


सन 1943 की सर्दियों में लुधियाना की एक शाम। कुछ युवा मस्तों की एक जुंडली पुराने से घर के अहाते में जमा थी। शायरी का दौर गर्म था। उलझे हुए बालों और लंबे-दुबले कद वाला एक शख्स महफिल में सब पर भारी पड़ रहा था। उसकी शायरी में असफल प्यार का दर्द था और मेहनतकश मजदूरों के अंदर सुलगती चिंगारी की तपिश भी। एक दोस्त ने कहा,'साहिर यार तू फिल्मों के लिए ट्राई क्यों नहीं करता? बंबई चला जा। यह पहली बार नहीं था, जब साहिर को किसी ने यह सलाह दी हो। साहिर मुस्कुराए और शेरो-शायरी में मशगूल हो गए। शायरी का यह 'यंग मलंग' और कोई नहीं अब्दुल हयी साहिर थे, जो बाद में साहिर लुधियानवी के नाम से मशहूर हुए। 
जागीरदार घराने में पैदा हुए साहिर की शायरी को उनके निजी जीवन के दर्द ने ही दवा दी। अमृता प्रीतम के साथ असफल प्यार, पिता से अनबन और ऐशो आराम की जिंदगी के बाद मुफलिसी का भयानक दौर, उनकी कलम में धार पैदा करता चला गया। उनकी शायरी में बगावत का जो पुट दिखता है उसका बीज लुधियाना में ही पड़ा। हालांकि, शोहरत लाहौर में मिली, जब 1943 में ही उनका पहला कविता संग्रह 'तल्खियां' प्रकाशित हुआ। इस दौर में लुधियाना की पहचान कारखानों से कतई नहीं थी, लेकिन साहिर की शायरी में कारखानों और खेतों में काम करने वालों की बुलंद आवाज थी। उन्होंने लिखा है :-
आज से ऐ मजदूर किसानो! मेरे राग तुम्हारे हैं
फाकाकश इंसानों! मेरे जोग-बिहाग तुम्हारे हैं।
आज से मेरे फन का मकसद जंजीरें पिघलाना है
आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊंगा। 
मेहनतकश लोगों के लिए साहिर ने जितना लिखा, शायद ही किसी दूसरे ने लिखा हो। लाहौर के ख्यात उर्दू पत्र 'अदब-ए-लतीफ' और 'शाहकार' के संपादक के रूप में साहिर की अच्छी-खासी पहचान बन चुकी थी, लेकिन बंबई जाने की सलाह उनके दिमाग में हमेशा रहती थी। एक पत्रिका में उनकी रचना को सरकार के विरुद्ध समझे जाने पर पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारंट जारी कर दिया। इसलिए 1949 में वे बंबई (अब मुंबई) आ गए। आ क्या गए छा गए। उनकी शायरी ने फिल्मी गीतों को अलग मतलब और मुकाम दिया। साहिर थे ही अलग। वे लता मंगेशकर के मेहनताने से हमेशा एक रुपया ज्यादा लिया करते थे। वो कहते थे शब्द ही गीत की आत्मा हैं। 
अपनी मुफलिसी के दौर में साहिर 'साकी' नामक एक मासिक पत्रिका निकाला करते थे। इससे जुड़ा एक किस्सा रीडर्स डाइजेस्ट में प्रकाशित हुआ था। साधन सीमित होने के चलते पत्रिका घाटे में चल रही थी। साहिर की हमेशा कोशिश रहती थी कि कम ही क्यों न हो लेखक को उसका पारिश्रमिक जरूर दिया जाए। एक बार वे किसी भी लेखक को पैसे नहीं भेज सके। ग$जलकार शमा लाहौरी को पैसों की सख्त जरूरत थी। वे तेज ठंड में कांपते हुए साहिर के घर पहुंचे और दो ग$जलों के पैसे मांगे। साहिर ने उन्हें अपने हाथ से चाय पिलाई। जब शमा को ठंड से थोड़ी राहत मिली तो साहिर ने खूंटी पर टंगा अपना महंगा कोट उतारा, जिसे कुछ दिन पहले ही उनके एक चहेते ने तोहफे में दिया था। कोट को शमा के हाथों में सौंपते हुए साहिर ने कहा,'भाई बुरा मत मानना इस बार नगद पारिश्रमिक न दे पाऊंगा।' युवा शायर की आंखें नम हो गईं और वे कुछ न बोल सके। 
साहिर अपने से ज्यादा दूसरों का ध्यान रखते थे। उनकी कोशिश से ही आकाशवाणी पर गानों के प्रसारण के समय गायक और संगीतकार के अलावा गीतकार का नाम भी लिया जाने लगा। वे दूसरों के हकों के लिए लड़ते थे, लेकिन जंग से उन्हें सख्त एतराज था। बकौल साहिर :- 
जंग तो खुद एक मसला है
जंग क्या मसलों का हल देगी
आग और खून आज बरसाएगी
भूख और एहतया$ज कल देगी।
उर्दू पर उनकी गजब पकड़ थी। उनकी शायरी में फै$ज का प्रभाव था, लेकिन 1964 में 'चित्रलेखा' फिल्म के 'मन रे तू काहे ना धीर धरे' जैसे कई गानों से उन्होंने साबित किया कि अच्छे शायर के लिए भाषा की कोई बाधा नहीं होती। लुधियाना की गलियों में आज भले ही हनी सिंह के गीत 'ऊंचे स्वर' में सुनाई पड़ते हों, लेकिन यहां कि मिट्टी में साहिर के बोल दफन हैं जो शायरी की फसल को कभी मुर्झाने नहीं देंगे। 

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