Sunday, September 14, 2014

हाल-ए-दिल

दर्द की गर्द में इश्क बेज़ार हो गया
मसला-ए-राजदां, सरेबाज़ार हो गया
चिलमन मिल सकी न फिकरों की धूप में
गुंचा-ए-गुल तार-तार हो गया
शब ढले तक पलकें गिनती थीं पहर
इक तेरे दीदार से होती सहर
दिलनवाज़ी की दुपहरी हसरतों में
इंतज़ार रात भर, कारोबार हो गया
रवायतों की ख़ातिर ख़ामोश रह गए
सितम ढाए जो भी चुपचाप सह गए
इश्क की जुंबिश पे वो जालिम नज़र
जोश-ए-मोहब्बत दिल से फरार हो गया
अब कैफ़ आए भी तो क्यों ख़लाओं में
हिज्र की तपिश जो है फज़ाओं में
रूह के सब साज़ लिपटे हैं कफन में
हाल-ए-दिल का हर तराना ग़ुबार हो गया

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