Sunday, September 14, 2014

रहमत

ये रहमतों की चादर सिर से हटा ले मौला
तेरी दरियादिली का आलम देखा नहीं जाता,
तेजाब से झुलसे चेहरों पे हंस लेता है तू
उनकी रोनी सूरतों पे मुझसे मुस्कुराया नहीं जाता!
नासूर बन चुके हैं वो ज़ख्म अब पुराने
अश्क भी नहीं बहते, खूं जम गया हो याने,
कुछ तेरे हिस्से के, कुछ मेरे भी बहाने
पर उठता है दर्द जब भी तो सहा नहीं जाता
तेरी दरियादिली का आलम...
मासूम मर गए हैं सरकारी अनाज खाकर
नेता "समझा" रहे हैं टीवी पे आ-आकर
मेरी गिरेबां न पकड़ो, किसी दूजे की जकड़ो जाकर
हम ही ठहरे बुद्धू जो "समझ" में नहीं आता
तेरी दरियादिली का आलम...
जाहिल हैं मेरी बातें, हुनरबाज़ तो तुम हो
सीने पे करते हो वार, मक्‍कार थोड़े कम हो,
धृतराष्‍ट्र की सभा है, बोले वही जिसमें दम हो
खामोश रहे अब तक, अब चुप रहा नहीं जाता!!
तेरी दरियादिली का आलम देखा नहीं जाता!!

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